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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
'जानता ही है' अर्थात् ज्ञानरूप ही परिणमित होता है; कहीं परसन्मुख होकर उन्हें जानने की बात नहीं है ।
देखो ! इस जाननरूप ज्ञानक्रिया में मोक्षमार्ग समाहित है । जहाँ अन्तर्मुख दृष्टि से पर्याय की एकता शुद्धस्वभाव के साथ हुई, वहाँ द्रव्य में अथवा पर्याय में कहीं व्यवहार के विकल्पों का कर्तृत्व नहीं रहता; ज्ञान में किसी विकल्प का कर्तृत्व नहीं है, उसका भोक्तृत्व नहीं है, उसका ग्रहण नहीं है, उसरूप परिणमन नहीं है - ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसका धर्मीजीव अनुभव करता है। भगवान ने ऐसे अनुभव को मोक्षमार्ग कहा है -
ऐसा मार्ग वीतराग का कहा श्री भगवान । समवसरण के मध्य में सीमन्धर भगवान ॥
विदेहक्षेत्र में सीमन्धर परमात्मा, दिव्यध्वनि से ऐसा मार्ग उपदेश कर रहे हैं और गणधर इत्यादि श्रोताजन भक्तिपूर्वक साक्षात् सुन रहे हैं। वहाँ बहुत से जीव, ऐसा अनुभव कर-करके मोक्षमार्गरूप परिणमित हो रहे हैं। कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने इन सीमन्धरभगवान की वाणी सुनकर, इस भरतक्षेत्र में भी वही मोक्षमार्ग प्रसिद्ध किया है और ऐसा अनुभव अभी भी हो सकता है । मोक्षमार्ग की विधि तीनों काल में एक ही है ।
, श्रीगुरु के उपदेश से ऐसे मोक्षमार्गरूप परिणमित
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हुआ, उसे उस मोक्षमार्ग का उपदेश करनेवाले देव - शास्त्र गुरु के प्रति अत्यन्त बहुमान और विनयादि होते ही हैं, तथापि वह. विनयादि शुभराग और अन्तर का ज्ञान इन दोनों के लक्षण पृथक् पृथक् हैं - ऐसा ज्ञान भी उसी क्षण वर्तता है । वन्दनादि