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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
उसमें तू है। वस्तु अपने गुण-पर्याय में बसती है, बाहर में नहीं रहती है। अन्तर में ऐसी तेरी वस्तु सत् है, उसे तू जान ! शरीर में
आँख तो पुद्गल की रचना; कान, पुद्गल की रचना; रसना, नाक (आदि सब) पुद्गल की रचना, हाथ-पैर पुद्गल की रचना है। इस पुद्गल के पिण्ड में कहाँ आत्मा आ गया है? वह तो पुद्गल से भिन्न अपने चैतन्यस्वरूप में ही रहा है। - अरे भगवान! तुझमें मोक्ष के कारणरूप जो निर्मलपरिणाम होता है, उस परिणाम जितना ही जहाँ तेरा पूरा द्रव्य नहीं; तब जड़ के परिणाम को तू कहाँ लगा? आहा...हा...! देखो तो सही, कैसी वस्तु सिद्ध करते हैं! वस्तु में पर्याय और द्रव्य दोनों साथ ही साथ सिद्ध किये हैं। जो वस्तु में पर्याय को बिल्कुल नहीं मानते, उनके सामने उत्पाद-व्ययरूप पर्याय सिद्ध की है और जो ध्रुव को बिल्कुल नहीं मानते, उनके समक्ष ध्रुवतत्त्व सिद्ध किया है। ध्रुव
और पर्याय, ये दो होकर वस्तु है। जैनधर्म के अनेकान्त की बलहारी है, उसका ज्ञान करने पर सच्ची दृष्टि होती है और ज्ञानचक्षु खुलते हैं।
आत्मवस्तु के पाँच भाव, उनमें निष्क्रियभाव और क्रियारूप भाव किस प्रकार से हैं ? यह समझाया; अब उसमें ध्येयरूप कौन हैं ? यह बतलाते हैं।
आत्मा को शुद्धभाव की अपेक्षा से देखने पर वह अक्रिय है और चार भावों की अपेक्षा से वह सक्रिय है, यह बात करके, अब कहते हैं कि -
शुद्धपारिणामिकभाव ध्येयरूप है परन्तु ध्यानरूप नहीं,