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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
विनश्वर नहीं है, अर्थात् वह अविनश्वर शुद्ध ध्रुवधाम का अवलम्बन करके ऐसी की ऐसी निर्मल निर्मल पर्यायें नयी-नयी हुआ करती है । इस प्रकार वस्तु में ध्रुव - स्थायी अंश और दूसरा पलटता अंश, दोनों एक साथ हैं। द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु है, उसमें क्रियारूप पर्याय अंश है; द्रव्य अंश क्रियारूप नहीं, वह अक्रिय है ।
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पाँच भावों में द्रव्य और पर्याय दोनों आ जाते हैं । वस्तु में दो बात है; दो में से एक को निकाल दो तो वस्तु ही सिद्ध नहीं होती । 'यह वस्तु है' – ऐसा निर्णय, अवस्था के द्वारा होता है | ध्रुव एकरूप है, वह कार्यरूप नहीं है; कार्य तो अवस्था द्वारा होता है, अवस्था के बिना द्रव्य का स्वीकार करेगा कौन ? द्रव्य तो निष्क्रिय है । निष्क्रिय अर्थात् क्या ? रागादि परिणति, वह बन्ध की क्रिया; वीतरागपरिणति वह मोक्ष की क्रिया ऐसे बन्ध-मोक्ष की
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क्रियारूप, पारिणामिक भाव नहीं है; इसलिए वह निष्क्रिय है। ऐसे परमतत्त्व की भावना द्वारा, अर्थात् उसकी सन्मुखता द्वारा शुद्धभाव प्रगट होता है । जिसे ऐसे परम अक्रियतत्त्व की भावना नहीं है, वही राग-द्वेष का कर्ता होता है और बन्ध के कारणरूप रागादि क्रिया को मोक्ष का कारण मानता है । वह जीव की पर्याय के भावों को भी पहचानता नहीं है और द्रव्य के स्वभाव को भी नहीं पहचानता है ।
यदि ध्रुवस्वभाव में राग हो, तब तो सम्पूर्ण आत्मा ही रागरूप हो जाएगा; राग के अतिरिक्त कुछ अस्तित्व ही नहीं रहेगा परन्तु ध्रुव में राग नहीं है; राग तो पर्याय का क्षणिकभाव है, वह कहीं अनादि-अनन्त भाव नहीं है, वह तो सादि - सान्त है और ध्रुवस्वभाव अनादि-अनन्त है । जितने रागादि भाव हैं, वे बन्ध के कारण हैं, वे