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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 195 - अवलम्बन करके निर्मलदशा हुई, वह औपशमिकादिभाव है। इन दोनों में रागादि उदयभाव का अभाव है, इसका नाम मोक्षमार्ग है। भाई ! तेरे अन्तर में शाश्वत् चैतन्यप्रभु को देखने के लिए दृष्टि को स्थिर करके टकटकी लगा (अर्थात्) ज्ञानचक्षु द्वारा अन्तर में नजर एकाग्र कर! निज परमार्थ तत्त्व की भावना कर! - ऐसा करने से तेरा मोक्ष का दरवाजा खुल जाएगा। अहो! यह अध्यात्मवस्तु पहचानने जैसी है। चैतन्य का अगम खजाना अन्दर भरा है। अन्तर के अनन्त प्रयत्न द्वारा जिसका पता लगे और अनुभव में आवे - ऐसी यह चीज है। बाहर के विकल्पों से इसका पता नहीं लगता है। विकल्प का उत्थान चैतन्यस्वरूप में नहीं है। यदि चैतन्यस्वरूप में विकल्प होवे तो उनका कभी अभाव नहीं होगा। चैतन्यभाव और विकल्प-रागभाव, इन दोनों की जाति ही अलग है। चैतन्यवस्तु को ध्रुवस्वभावरूप से देखो, तब तो मोक्षस्वरूप ही है, उसे शक्तिरूप मोक्ष कहते हैं। (सर्व जीव है सिद्धसम; सिद्ध समान सदा पद मेरो....) उस स्वभाव के सन्मुख होने से पर्याय में से राग-द्वेष-मोहरूप बन्धन का अभाव होकर, वीतरागी मोक्षदशा प्रगट होती है, वह व्यक्तिरूप मोक्ष है। यहाँ उसके कारणरूप शुद्धपर्याय का विचार चल रहा है। ___मोक्ष के कारणरूप जो शुद्धपर्याय है, उसमें आनन्द का वेदन है और राग का अभाव है। वह पर्याय, ध्रुवस्वभाव का अवलम्बन करनेवाली है। जीव को अपने असली चिदानन्दस्वभाव की महिमा भासित हो तो उसे रागादि परभावों की महिमा उड़ जाती है और बाहर के अल्प क्षयोपशम की महिमा छूट जाती है; इसलिए वहाँ से विमुख होकर अन्तर में चैतन्य-चमत्कार के सन्मुख होता है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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