SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा - ___... प्रवचन .. जैसे, नेत्र (दृश्य पदार्थों को करता--भोगता नहीं है किन्तु देखता ही है), उसी प्रकार ज्ञान, अकारक तथा अवेदक है और बन्ध, मोक्ष, कर्मोदय, तथा निर्जरा को जानता ही है। यहाँ ज्ञायकस्वभावी आत्मा, पर का और रागादिक का अकर्ता --अभोक्ता है, यह बात समझाते हैं। ज्ञानस्वभावी आत्मा है, वह अपने ज्ञाताभाव से भिन्न, अन्य भावों का कर्ता-भोक्ता नहीं है; शरीर, मन, वाणी, कर्म इत्यादि जड़ पदार्थों को तो आत्मा कभी नहीं करता और उन्हें भोक्ता भी नहीं है। उन्हें मैं कर्ता हूँ- मैं भोक्ता हूँ ऐसा अज्ञान से ही जीव मानता है परन्तु उन्हें कर्ता या भोक्ता नहीं है। पुण्य-पाप जो कि आत्मा का स्वरूप नहीं है, उसे भी ज्ञानभाव से आत्मा, कर्ता या भोक्ता नहीं है; मात्र जानता ही है। सर्वविशुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा, अपने से भिन्न भावों का करने या भोगनेवाला नहीं है, उनरूप होनेवाला नहीं है। कर्मों की बन्ध मोक्षरूप अवस्था का कर्ता आत्मा नहीं है; आत्मा तो ज्ञाताभावमात्र है। उसका ज्ञान, परपदार्थों को तो कर्ता-वेदता नहीं है और व्यवहार सबन्धी रागादि विकल्पों को भी कर्ता-भोक्ता नहीं है। ऐसे सहज ज्ञानस्वरूप आत्मा को श्रद्धा-ज्ञान-अनुभव में लेना, वह धर्म है। ऐसे आनन्दमूर्ति आत्मा के ज्ञानस्वभाव में अकर्ता- अभोक्तापना. किस प्रकार से है ? -- वह यहाँ विशेष समझायेंगे तथा उसके उपशम आदि पाँच भावों में से, मोक्ष के कारणरूप भाव कौर से हैं? यह भी समझायेंगे। जीव, अज्ञान के कारण चार गति में परिभ्रमण करके दु:खी हो
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy