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________________ उपादान - निमित्त की स्वतन्त्रता होने की योग्यता विश्व के किसी परमाणु में होती ही नहीं है । सम्यग्दृष्टि के जो अल्प राग-द्वेष है, वह अपनी वर्तमान पर्याय की योग्यता से है, उस समय अल्प कर्मरूप से बँधने की योग्यता परमाणु की पर्याय में है । इस प्रकार स्वलक्ष्य से प्रारम्भ करना है। 67 'जगत् के परमाणुओं में मिथ्यात्वादि कर्मरूप होने की योग्यता है; इसलिए जीव के मिथ्यात्वादि भाव होना ही चाहिए' - जिसकी ऐसी मान्यता है, वह जीव स्वद्रव्य के स्वभाव को नहीं जानता और इसलिए उस जीव के निमित्त से मिथ्यात्वादिरूप परिणमित होने योग्य परमाणु इस जगत् में विद्यमान हैं - ऐसा जानना चाहिए किन्तु स्वभावदृष्टि से देखनेवाले जीव के मिथ्यात्व होता ही नहीं और उस जीव के निमित्त से मिथ्यात्वादिरूप परिणमित होने की योग्यता ही जगत् के किसी परमाणु में नहीं होती । स्वभावदृष्टि से ज्ञानी विकार के अकर्ता हो गये हैं, इसलिए यह बात ही मिथ्या है कि 'ज्ञानी को पर के कारण विकार करना पड़ता है।' जो अल्प विकार होता है, वह भी स्वभावदृष्टि के बल अर्थात् पुरुषार्थ के द्वारा दूर होता जाता है। ऐसी स्वतन्त्र स्वभावदृष्टि (सम्यक् श्रद्धा) किये बिना जीव जो कुछ शुभभावरूप व्रत, तप, त्याग करता है, वे सब ' अरण्यरोदन' के समान निष्फल है । फूँक से पर्वत को उड़ाने की बात ! शङ्का - 'वस्तु में जब जो पर्याय होनी होती है, वह होती है और तब निमित्त अवश्य होता है किन्तु निमित्त कुछ नहीं करता और निमित्त के द्वारा कोई कार्य नहीं होता' - यह तो फूँक से पर्वत को उड़ाने जैसी बात है ?
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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