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वस्तुविज्ञानसार
सो होगा' ऐसा कहकर साता में रञ्जित होने की आदत से स्वच्छन्दता का मार्ग ढूँढ़ निकालते हैं, उसका नाम गृहीत -मिथ्यात्व है। वह जीव न तो सर्वज्ञ को पहचानता है और न वस्तु के स्वरूप को ही जानता है। सम्यनियतिवाद तो स्वभावभाव है, स्वतन्त्रता है, वीतरागता है, उसमें सर्वज्ञ की और वस्तुस्वभाव की पहचान है।
सम्यनियतिवाद के निर्णय से निमित्ताधीनदृष्टि __ और स्व-पर की एकत्वबुद्धि का अभाव जिस वस्तु में, जिस समय, जैसी पर्याय होनी हो और जिस निमित्त की उपस्थिति में होनी हो; उस वस्तु में, उस समय, वैसी पर्याय होती ही है और वे निमित्त ही उस समय होते हैं - इस नियम में तीन लोक और तीन काल में कोई परिवर्तन नहीं होता। यही यथार्थ नियति का निर्णय है। इसमें आत्मस्वभाव के श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र आ जाते हैं और निमित्त की दृष्टि दूर हो जाती है। जिसकी ऐसी मान्यता है कि 'मैं पर का कर्ता तो नहीं हूँ किन्तु मैं निमित्त बनकर उसकी पर्याय में आगे-पीछे कर दूँ', वह मिथ्यादृष्टि है।
यह निमित्त है, इसलिए पर का कार्य होता है - ऐसी बात नहीं है, किन्तु प्रस्तुत वस्तु में उसकी योग्यता से जो कार्य होता है, उसमें अन्य वस्तु की निमित्त कहा जाता है। वस्तु में कार्य नहीं होना था, किन्तु मैं निमित्त हुआ, तब उसमें कार्य हुआ - ऐसी मान्यता में तो स्व-पर की एकत्वबुद्धि ही हुई।
लकड़ी अपने आप ऊँची होती है 'यह लकड़ी है, इसमें ऊपर उठने की योग्यता है, किन्तु जब