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________________ वस्तुविज्ञानसार फल है। इसमें ज्ञान और पुरुषार्थ की स्वीकृती है, किन्तु जो जीव एकान्तनियतिवाद को मानता है अर्थात् नियति के निर्णय में अपना जो ज्ञान और पुरुषार्थ आता है, उसका स्वीकार नहीं करता और स्वभावसन्मुख नहीं होता, वह मिथ्यादृष्टि है और उसका नियतिवाद गृहीतमिथ्यात्व का भेद है, इसलिए वह गृहीतमिथ्यादृष्टि है । 56 • सम्यक्नियतिवाद में पाँचों समवाय अज्ञानी यथार्थ निर्णय नहीं कर सकते, उन्हें ऐसा लगता है कि यह तो एकान्त नियतिवाद है किन्तु इस नियतिवाद का यथार्थ निर्णय करने पर अपने केवलज्ञान का निर्णय हो जाता है । अस्थिरता का जो विकल्प उठता है, उसका कर्ता आत्मा नहीं है; इस प्रकार राग का कर्त्तत्व उड़ जाता है। ऐसे सम्यक्नियतिवाद की श्रद्धा में पाँचों समवाय एक साथ आ जाते हैं । पहले तो स्वभाव का ज्ञान और श्रद्धा की, वह पुरुषार्थ; उसी समय जो निर्मलपर्याय प्रगट होनी नियत थी, वही पर्याय प्रगटी है, यह नियत; उस समय जो पर्याय प्रगट हुई, वही स्वकाल; जो पर्याय प्रगट हुई, वह स्वभाव में थी, वही प्रगट हुई, इसलिए वह स्वभाव; उस समय पुद्गलकर्म का स्वयं अभाव होता है, वह अभावरूप निमित्त एवं सद्गुरु इत्यादि हों, वे सद्भावरूप निमित्त हैं । पर्याय क्रमबद्ध ही होती है, इसकी श्रद्धा करने पर अथवा ज्ञानस्वभाव का निर्णय करने पर जीव, जगत् का साक्षी हो जाता है ।
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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