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वस्तुविज्ञानसार
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बातूनी है और जो अपने स्वभाव के लक्ष्य से स्वोन्मुख होकर, स्वभाव की एकता करके, राग से भिन्न ज्ञायक हो गया है, उसके अपने स्वभाव के पुरुषार्थ में नियत भी समाविष्ट हो जाता है। जहाँ स्वभाव का पुरुषार्थ है, वहाँ नियम से मोक्ष है अर्थात् पुरुषार्थ में नियत भी आ जाता है। जहाँ सम्यक् पुरुषार्थ नहीं है, वहाँ मोक्ष -पर्याय का नियत भी नहीं है।
अहो! महासन्त मुनिश्वरों ने जङ्गल में रहकर आत्मस्वभाव का अमृत बहाया है। आचार्यदेव धर्म के स्तम्भ हैं, उन्होंने पवित्र धर्म को सहारा देकर स्थिर रखा है। एक-एक आचार्यदेव ने अद्भुत कार्य किये हैं। साधकदशा में स्वरूप की शान्ति का वेदन करते हुए, परीषहों को जीतकर परम सत्य को जीवित रखा है। आचार्यदेव के कथन में केवलज्ञान की प्रतिध्वनि गूंज रही है। ऐसे महान शास्त्रों की रचना करके आचार्यों ने अनेकानेक जीवों पर अपार उपकार किया है। उनकी रचनाएँ देखो, कितने गम्भीर रहस्य भरे हैं उनमें! यह तो सत्य की घोषणा है। इसके संस्कार अपूर्व वस्तु है और इसे समझना मानों मुक्ति को वरण करने का श्रीफल है। जो इसे समझ लेता है, उसका मोक्ष निश्चित है।
प्रश्न - जो होना होता है, सो होता है, ऐसा मानने में अनेकान्तस्वरूप कहाँ आया?
उत्तर- जो होना होता है, वह वैसा होता है अर्थात् पर का पर से होता है और मेरा मुझ से होता है - यह जानकर, पर से हटकर, स्व-सन्मुख होने का है, उसमें अनेकान्त स्वरूप है। मेरी पर्याय मेरे द्रव्य में से आती है, मेरी पर्याय पर में से नहीं आती' - इस प्रकार