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________________ *30 सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ मैं द्रव्य हूँ और मेरे अनन्त गुण हैं। वे गुण पलटकर समय -समय पर एक के बाद एक अवस्था होती है। कोई भी समय अवस्था के बिना खाली नहीं जाता। केवलज्ञान और मोक्षदशा भी मेरे गुण में से क्रमबद्ध प्रगट होती है, इसमें कोई भी परचीज अंशमात्र भी कारण नहीं है। इस प्रकार क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा होने पर, अपनी पर्याय प्रगट होने के लिए किसी परवस्तु पर लक्ष्य नहीं रहेगा और इसलिए किसी परवस्तु के प्रति राग-द्वेष करने का कारण नहीं रहेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वह जीव समस्त परपदार्थों में इष्ट -अनिष्टबुद्धि छोड़कर, आत्मनिरीक्षण में ही लग जाता है; ऐसा होने पर अपने में भी ऐसा संशयरूप विकल्प नहीं रहता कि 'मेरी पूर्ण शुद्धपर्याय कब प्रगट होगी?' क्योंकि तीन काल की क्रमबद्धपर्याय से भरा हुआ द्रव्य उसकी प्रतीति में आ गया है और मोक्षमार्ग प्रतिक्षण सध ही रहा है। तात्पर्य यह है कि जो स्वसन्मुख होकर क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा करता है, वह जीव अवश्य ही आसन्न मुक्तिगामी होता है, क्योंकि जिस समय जिस वस्तु की जो अवस्था होती जाती है, उसका वह मात्र ज्ञान ही करता है। बस, वह ज्ञाता हो गया; ज्ञातारूप से रहकर वह अल्पकाल में ही केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्ति को प्राप्त करेगा। यह क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा का अर्थात् ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा का फल है। क्रमबद्धपर्याय के निर्णय में ज्ञायकभाव का अर्थात् वीतराग -स्वभाव का निर्णय है और वह निर्णय स्वसन्मुख पुरुषार्थ से हो सकता है। सम्यक् पुरुषार्थ को स्वीकार किये बिना मोक्षमार्ग की
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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