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________________ वस्तुविज्ञानसार मानते, किन्तु ज्ञान की अपूर्णदशा के कारण अपनी दुर्बलता से उसे अल्प रागद्वेष होता है, उस समय सम्पूर्ण ज्ञानदशा किस प्रकार की होती है, इसका वे इस तरह चिन्तवन करते हैं । यह धर्मभावना है अर्थात् वस्तुस्वरूप का चिन्तवन है। 11 जिस काल में जिस वस्तु की जो अवस्था सर्वज्ञदेव के ज्ञान में ज्ञात हुई है, उसी प्रकार क्रमबद्ध अवस्था होगी। भगवान तीर्थङ्करदेव भी उसे बदलने में समर्थ नहीं हैं। देखिए, इसमें सम्यग्दृष्टि की भावना की नि:शङ्कता का कितना बल है ! 'भगवान भी उसे बदलने में समर्थ नहीं है' - यह कहने में वास्तव में अपने ज्ञान की निः : शङ्कता ही हैं । सर्वज्ञदेव मात्र ज्ञाता है किन्तु वे किसी भी तरह का परिवर्तन करने में समर्थ नहीं हैं, तब फिर मैं तो कर ही क्या सकता हूँ? मैं भी मात्र ज्ञाता ही हूँ । इस प्रकार उसे अपने ज्ञान की पूर्णता की भावना का बल है; पर में कर्त्तत्व की बुद्धि छूट गई है। I जिस क्षेत्र में, जिस शरीर के जीवन या मरण; सुख या दुःख; संयोग या वियोग; जिस विधि से होना है, उसमें किञ्चित्मात्र भी अन्तर नहीं पड़ सकता। साँप का काटना, पानी में डूबना, अग्नि में जलना इत्यादि जो संयोग होना है, उसे बदलने को कोई भी तीन काल- तीन लोक में समर्थ नहीं है। इसमें महानतम सिद्धान्त निहित है जो कि ज्ञानभाव का पुरुषार्थ सिद्ध करता है 1 स्वामी कार्तिकेय आचार्य महा सन्त-मुनि थे, वे दो हजार वर्ष पूर्व हो गये हैं। उन्होंने वस्तुस्वरूप को दृष्टि में रखकर इस शास्त्र में बारह भावनाओं के स्वरूप का वर्णन किया है । यह शास्त्र सनातन जैन परम्परा में बहुत प्राचीन माना जाता है।
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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