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सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ
ज्ञान का स्वरूप नहीं है - ऐसी श्रद्धा में ज्ञान का अनन्त पुरुषार्थ समाविष्ट रहता है।
आचार्यदेव ने यहाँ पर इन दो गाथाओं में वस्तुस्वरूप बताया है। सम्यग्दृष्टि को अभी केवलज्ञान नहीं हुआ, इसके पहले केवलज्ञान को प्रतीति में लेकर, अपने केवलज्ञान की भावना करता हुआ वस्तु स्वरूप का विचार करता है। सर्वज्ञ ने कैसा वस्तुस्वरूप देखा है? इसका चिन्तन करता है।
वस्तु की अवस्था क्रमबद्ध होती है। वस्तु की जो अवस्था होती है, उस अवस्था के लिए अनुकूल निमित्तरूप परवस्तु स्वयं उपस्थित रहती है। आत्मा की क्रमबद्धपर्याय की जो योग्यता होती हो, उसके अनुसार यदि निमित्त न आये तो वह पर्याय रुक जाएगी - ऐसी बात नहीं है। यह प्रश्न ही नहीं रहता कि यदि निमित्त नहीं आयेगा तो पर्याय कैसे होगी? उपादानस्वरूप की दृष्टिवाले को यह प्रश्न ही नहीं रहता। वस्तु में अपने क्रम से जब जो अवस्था होती है, तब उसका निमित्त भी होता ही है - ऐसा नियम है।
धूप, परमाणुओं की प्रकाशरूप दशा है और छाया भी परमाणुओं की दशा है। परमाणुओं में जिस समय काली अवस्था होती है, उस समय काली अवस्था उनके द्वारा स्वयं होती है और उस समय दूसरी वस्तु निमित्तरूप उपस्थित रहती है। परमाणुओं की काली दशा के क्रम को बदलने के लिए कोई समर्थ नहीं है। धूप के बीच में हाथ रखने पर नीचे परछाई पड़ती है, वह हाथ के कारण नहीं पड़ती, किन्तु वहाँ के परमाणुओं की ही उस समय काली अवस्था हुई है।