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वस्तुविज्ञानसार
श्री कार्तिकेयस्वामी ने सम्यग्दृष्टि की धर्मानुप्रेक्षा के वर्णन में यह बताया है कि सम्यग्दृष्टि जीव, वस्तुस्वरूप का कैसा चिन्तन करता है तथा उसमें मोक्षमार्ग का सम्यक् पुरुषार्थ भी किस प्रकार आ जाता है - यह विशेष ज्ञातव्य है। इसलिए यहाँ मूल गाथाएँ लेकर इनका विवेचन किया जा रहा है। मूल गाथाएँ इस प्रकार हैं - जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि। णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा॥ 321॥ तं तस्स तम्मि देसे जेण विहाणेण तम्मि कालम्मि। को सक्कदि वारेदुं इंदो वा तह जिणिंदो वा ॥ 322॥
अर्थ-जिस जीव को, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधि से जन्म-मरण, सुख-दुःख तथा रोग और दारिद्रय इत्यादि जैसे सर्वज्ञदेव ने जाने हैं, उसी प्रकार वे सब नियम से होंगे। सर्वज्ञदेव ने जिस प्रकार जाना है, उसी प्रकार उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में और उसी विधि से नियमपूर्वक सब होता है; उसके निवारण करने के लिए इन्द्र या जिनेन्द्र तीर्थङ्करदेव कोई भी समर्थ नहीं है।
भावार्थ - सर्वज्ञदेव समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अवस्थाओं को जानते हैं। सर्वज्ञ के ज्ञान में जो कुछ प्रतिभासित हुआ है, वह सब निश्चय से होता है; उसमें हीनाधिक कुछ भी नहीं होता। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि विचार करता है।
- इन गाथाओं में यह बताया है कि सम्यग्दृष्टि की धर्मानुप्रेक्षा कैसी होती है? सम्यग्दृष्टि जीव, वस्तु के स्वरूप का किस प्रकार चिन्तन करता है? – यह बात यहाँ बताई है। सम्यग्दृष्टि की यह भावना झूठा आश्वासन देने के लिए नहीं है किन्तु जिनेन्द्रदेव के द्वारा