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प्रकरण 7
जीव का कर्त्तव्य
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द्रव्यदृष्टि का अभ्यास
'प्रत्येक द्रव्य पृथक्-पृथक् है, एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ वास्तव में कोई सम्बन्ध नहीं है;' इस प्रकार यथार्थतया जाननेवाले को स्वद्रव्य की दृष्टि होती है और द्रव्यदृष्टि होने पर सम्यग्दर्शन होता है । जिसे सम्यग्दर्शन होता है, उसे मोक्ष हुए बिना नहीं रहता; इसलिए मोक्षार्थी को सर्वप्रथम वस्तु का स्वरूप जानना आवश्यक है।
प्रत्येक द्रव्य पृथक्-पृथक् है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं करता - ऐसा मानने पर वस्तुस्वभाव का इस प्रकार ज्ञान हो जाता है कि आत्मा सर्व परद्रव्यों से भिन्न है तथा प्रत्येक पुद्गल परमाणु भिन्न है, दो परमाणु मिलकर एकरूप होकर कभी कार्य नहीं करते क्योंकि प्रत्येक परमाणु भिन्न ही है।
जीव के विकारभाव होने में विकारी परमाणु अर्थात् स्कन्ध निमित्तरूप हो सकते हैं परन्तु द्रव्य की अपेक्षा से देखने पर प्रत्येक परमाणु पृथक् ही है; दो परमाणु कभी भी नहीं मिलते और एक पृथक् परमाणु जीव को कभी भी विकार का निमित्त नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक द्रव्य भिन्न है - ऐसी स्वभावदृष्टि से कोई द्रव्य अन्य द्रव्य के विकार का निमित्त भी नहीं है। इस प्रकार अर्थात्