SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 112 वस्तुविज्ञानसार अवलम्बन से विशेषरूप जो केवलज्ञान पूर्ण प्रत्यक्ष है, उसका निर्णय वर्तमान मतिज्ञान के अंश द्वारा उसे हो सकता है। यदि पूर्ण असहाय ज्ञानस्वभाव, मतिज्ञान के निर्णय में नहीं आये तो वर्तमान विशेषअंशरूप ज्ञान (मतिज्ञान) पर के अवलम्बन के बिना प्रत्यक्षरूप है - यह निर्णय भी नहीं हो सकता। सामान्यस्वभाव के आश्रय से जो विशेषरूप मतिज्ञान प्रगट हुआ है, उस मतिज्ञान में केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। जो अंश प्रगट हुआ है, वह अंशी के आधार के बिना प्रगट नहीं हुआ है; इसलिए अंशी के निर्णय के बिना अंश का निर्णय नहीं होता। अहो! आज श्रुतपञ्चमी है। इस जयधवला में जो केवलज्ञान का रहस्य भरा गया है, उसकी मुख्य दो विशेषताएँ हैं, जिनकी स्पष्टता होती है - (1) अपने ज्ञान की विशेषरूप अवस्था परावलम्बन के बिना स्वाधीन भाव से है। (2) उस स्वाधीन अंश में समस्त केवलज्ञान प्रत्यक्ष है - यह दो मुख्य विशेषताएँ हैं। सामान्यस्वभाव की प्रतीति करता हुआ, जो वर्तमान निर्मल स्वावलम्बी ज्ञान प्रगट हुआ, वह साधक है और वह पूर्ण साध्यरूप केवलज्ञान को प्रत्यक्ष जानता हुआ प्रगट होता है। वह साधकज्ञान स्वाधीनभाव से अपने कारण से, भीतर के सामान्यज्ञान की शक्ति के लक्ष्य से परिणमन करता हुआ साध्य केवलज्ञानरूप होता है, उसमें कोई बाह्यावलम्बन नहीं है किन्तु सामान्य ज्ञानस्वभाव का ही अवलम्बन है। आत्मा का धर्म आत्मा के ही पास है। अशुभभाव से बचने के लिए शुभभाव होता है, उसे ज्ञान जान लेता है किन्तु उसका.
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy