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वस्तुविज्ञानसार
तो 'खरगोश के सींग' जैसा अर्थात् अभावरूप है। बिना विशेष के सामान्य हो ही नहीं सकता; इसलिए निर्विशेष सामान्यज्ञान मानने से सामान्यज्ञान का भी नाश या अभाव हो जाएगा; इसलिए यदि यह माना जाए कि विशेषज्ञान से ही जाननेरूप कार्य होता है तो ही सामान्यज्ञान का अस्तित्व रह सकेगा।
ज्ञानस्वभाव, राग और निमित्त के अवलम्बन से रहित है और विशेषज्ञान, सामान्यज्ञान से ही आता है - ऐसा जानकर उसकी श्रद्धा, ज्ञान और स्थिरता करना ही धर्म है। ___ यदि आत्मा, इन्द्रियों से जानता है तो फिर उसके ज्ञान का वर्तमान कार्य कहाँ गया? यदि इन्द्रियों की उपस्थिति में ज्ञान इन्द्रियों के कारण जानता है तो उस समय सामान्यज्ञान, विशेषपर्यायरहित हुआ, किन्तु बिना विशेष के सामान्य तो होता नहीं है। जहाँ सामान्य होगा, वहाँ उसका विशेष होगा ही।
अब प्रश्न यह होता है कि वह विशेष, सामान्यज्ञान से होता है या निमित्त से? विशेषज्ञान, निमित्त के कारण तो हुआ नहीं है, किन्तु सामान्य स्वभाव से हुआ है। विशेष का कारण सामान्य है, निमित्त उसका कारण नहीं है। यदि उसे अंशतः भी निमित्त का कार्य माना जाए तो निमित्त, जो परद्रव्य है, उसरूप ज्ञान हो जाएगा।आत्मा का ज्ञानस्वभाव स्थिर है, वह सामान्य और जो वर्तमान कार्यरूप है, वह ज्ञान का विशेष है। सामान्यज्ञान का विशेष कहो, स्थिर ज्ञानस्वभाव का परिणमन कहो या ज्ञान की वर्तमान दशा (पर्याय) कहो, कुछ भी कहो, वह सब एक ही है और स्वयं अपने से स्वतन्त्र है।
आत्मा का स्वभाव ज्ञान है। वह केवल जानने का ही काम