SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 104 वस्तुविज्ञानसार जिनशासन के अतिरिक्त अन्य किसी में तो है ही नहीं, परन्तु वीतराग जिनशासन में कहे अनुसार शास्त्रों का ज्ञान करे, जीवादिक नवतत्त्वों की श्रद्धा करे और छह जीवनिकायों को मानकर उनकी दया करे तो वह भी पुण्य का कारण है और उसे व्यवहारदर्शन-ज्ञान-चारित्र कहा जाता है किन्तु परमार्थदृष्टि उसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र के रूप में स्वीकार नहीं करती, क्योंकि जिनशासन के व्यवहार तक आया, इतने मात्र से धर्म नहीं है। यदि निश्चय आत्मस्वभाव की ओर ढलकर उस व्यवहार का निषेध करे तो धर्म है। इस प्रकार निश्चयनय, व्यवहार का निषेध करता है। इस प्रकार यहाँ यह बताया है कि अज्ञानी को व्यवहार की सूक्ष्म पकड़ कहाँ रह जाती है? तथा निश्चयनय का आश्रय कैसे होता है ? अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवों को मिथ्यात्व क्यों रह जाता है तथा सम्यग्दर्शन कैसे प्रगट होता है? - यह बतलाया है। इस विषय से सम्बन्धित कथन मोक्षमार्गप्रकाशक में भी आता है, वह इस प्रकार है - 'सत्य को जानता है, तथापि उसके द्वारा अपना अयथार्थ प्रयोजन ही सिद्ध करता है; इसलिए वह सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता।' यद्यपि ज्ञान के क्षयोपशम में निश्चय-व्यवहार दोनों का ख्याल होता है, तथापि अपने बल को निश्चय की ओर ढालना चाहिए, उसकी जगह व्यवहार की ओर ढालता है; इसलिए व्यवहार का पक्ष रह जाता है। अज्ञानी व्यवहार-व्यवहार करता है और ज्ञानी निश्चय के आश्रय से व्यवहार का निषेध ही निषेध करता है।
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy