SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वस्तुविज्ञानसार है, इसका आश्रय लेने से सम्यग्दृष्टि हुआ जा सकता है । इसे जाने बिना जीव जब तक व्यवहार में मग्न है, तब तक आत्मा के ज्ञानश्रद्धारूप निश्चयसम्यक्त्व नहीं हो सकता।' 102 आत्मा के निश्चयस्वभाव की दृष्टि करने पर व्यवहार गौण हो जाता है। वहाँ यदि स्वभाव के कार्य के लिए वीर्य नकार करे और व्यवहार के लिए रुचि करे तो समझना चाहिए कि उसे स्वभाव की रुचि नहीं है और स्वभाव की रुचि के बिना वीर्य स्वभाव में काम नहीं कर सकता अर्थात् उसकी व्यवहार की रुचि दूर नहीं होती । ज्ञानियों ने यह बात बारम्बार कही है कि यह निश्चयनय, व्यवहार का निषेध करता है । उसमें व्यवहार के स्वरूप का ज्ञान भी उसी के साथ आ जाता है। निश्चयनय जिस व्यवहार का निषेध करता है, वह व्यवहार कौन सा है ? कुदेव आदि की मान्यतारूप जो ज्ञान है, वह तो मिथ्यात्व पोषक है, उसका तो निषेध ही है क्योंकि उसमें तो व्यवहारत्व भी नहीं है । कुदेव आदि की मान्यता को छोड़कर, सच्चे देव-गुरु-शास्त्रों ने जो कहा है, उसके ज्ञान को व्यवहार कहा गया है और वह भी निश्चयसम्यग्दर्शन का मूलकारण नहीं है, इसलिए निश्चयस्वभाव के बल से व्यवहार का निषेध किया गया है 1 जो सच्चे देव - शास्त्र - गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी कुदेव आदि को सत्यार्थरूप में मानता है, वह ज्ञान तो व्यवहार से भी भ्रष्ट अर्थात् दूर है । जिन निमित्तों की ओर से वृत्ति को उठाकर स्वभाव में ढलना होता है, वे निमित्त क्या हैं, इसका जिसे विवेक नहीं है, उसे स्वभाव का विवेक तो हो ही नहीं सकता और यह भी नियम नहीं है
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy