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________________ अज्ञानी को व्यवहार का सूक्ष्म.... 97 उत्तर - नहीं, इसी में सच्चा अनेकान्त है। निश्चयस्वभाव और राग - दोनों को जानकर, जब वीर्य के बल को निश्चयस्वभाव में लाता है, तब ज्ञान में गौणरूप से यह ध्यान तो होता ही है कि अवस्था में विकार भी है। स्वभाव की ओर ढलनेवाला जीव, पर्याय की अपेक्षा से अपने को केवलज्ञानी नहीं मानता। इस प्रकार उसने ज्ञान में निश्चय और व्यवहार दोनों को जानकर, निश्चय का आश्रय और व्यवहार का निषेध किया है और यही अनेकान्त है। दोनों पक्षों को जानकर एक में आरूढ़ और दूसरे में अनारूढ़ हुआ अर्थात् निश्चय को ग्रहण किया और व्यवहार को छोड़ा, बस यही अनेकान्त है, किन्तु निश्चय और व्यवहार दोनों को आश्रय करने योग्य मानना तो एकान्त है। दो नय परस्पर विरोधरूप हैं, इसलिए दोनों का आश्रय नहीं हो सकता। जब जीव निश्चय का आश्रय करता है, तब उसके व्यवहार का आश्रय छूट जाता है और जब व्यवहार के आश्रय में अटक जाता है, तब उसके निश्चय का आश्रय नहीं होता – ऐसा होने पर भी जो दोनों नयों को आश्रय करने योग्य मानते हैं, वे दोनों नयों को एकमेक मानने के कारण एकान्तवादी हैं। राग तो सम्यग्दर्शन में सहायता नहीं करता, किन्तु 'राग मुझे सहायता नहीं करता' ऐसा विकल्प भी सहायता नहीं करता। जब जीव, राग से मुक्त होकर स्वभाव की ओर ढलता है, तब मुख्य स्वभाव की (निश्चय की) दृष्टि होती है और अवस्था गौण होती है। इस प्रकार निश्चय को मुख्य और व्यवहार को गौण करने से ही अनेकान्त का फल आता है।
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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