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प्रकरण - 5 अज्ञानी के अभिप्राय में व्यवहार का सूक्ष्म पक्ष
और उसके अभाव का उपाय इस जगत में अनन्त प्राणियों को, अनादिकाल से अपने निश्चयस्वभाव की महिमा का ज्ञान न होने से राग और विकल्प का सूक्ष्म पक्ष रह जाता है। यहाँ व्यवहार के उस सूक्ष्म पक्ष का स्वरूप बताया जा रहा है, जिसको छोड़कर परमार्थ के आश्रय से धर्म की साधना हो सकती है।
जीव को परवस्तु, विकल्प तथा आत्मा का स्वभाव भी श्रवण में आता है, उसके ख्याल में यह आता है कि आत्मवस्तु, राग अथवा परवस्तु जैसी नहीं है, यह ख्याल में आने पर भी यदि राग में आत्मा का वीर्य / बल रुक जाए तो व्यवहार का पक्ष रह जाता है। यदि आत्मा के वीर्य को पर की ओर के झुकाव से पृथक् करके, स्वभाव के ज्ञान से वीर्य को शुभभाव में भी न लगाकर, शुभ से भी भिन्न आत्मस्वभाव की ओर प्रवृत्त करे तो समझना चाहिए कि जीव ने निश्चय के आश्रय से व्यवहार का निषेध किया है और उसे ही धर्मसाधना अर्थात् सम्यक्त्वादि हैं। - आत्मा, वर्तमान में ही ज्ञानादि अनन्त स्वभाव / गुण का पिण्ड