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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ७७
स्वपद अक्षय प्रकट कर लूँ करूँ हे नाथ ऐसा श्रम । भेंट अक्षत करूँ उज्वल भावनामय परम उत्तम ॥ गोत्र दोनों प्रकृति नानूँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ । परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ ॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. । शील गुण पुष्प की पावन सुरभि है पूर्ण गुणकारी । काम की व्याधि नानूँ मैं बनूँ हे नाथ अविकारी ॥ गोत्र दोनों प्रकृति नाशँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ । परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ ॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. ।
क्षुधा की वेदना क्षयकर अनाहारी स्वपद पाऊँ । भेंट नैवेद्य भावों के करूँ निज आत्मा ध्याऊँ ॥ गोत्र दोनों प्रकृति नानूँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ । परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ ॥ . ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. ।
ज्ञानमय दीप की ध्रुव ज्योति पाने को शरण आया । घोर मिथ्यात्वतम नायूँ यही दृढ़ ध्येय उर भाया ॥ गोत्र दोनों प्रकृति नाशँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ । परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ ॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. ।
ध्यानमय धूप लाया निज परम महिमामयी पावन । कर्म व नाश करने का मिला अवसर सु मनभावन ॥ गोत्र दोनों प्रकृति नानूँ अगुरुलघु गुण सदा ध्याऊँ । परावर्तन पंच क्षय हित सिद्ध प्रभु को सदा ध्याऊँ ॥
ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं नि./