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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/७२ कर्म उदय से बादर या स्थूल देह हो जाती प्राप्त। बादर शरीर नामकर्म की प्रकृति विनायूँ हे जिन आप्त॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवें भवदुख मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥८४॥ ॐ ह्रीं बादरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। कर्म उदय से अपने योग्य सदा पर्याप्ति पूर्ण होती। यह पर्याप्ति नामकर्म की प्रकृति ज्ञान से क्षय होती। नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥८५॥ ॐ ह्रीं पर्याप्तनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./ कर्म उदय से अपर्याप्ति परिपूर्ण नहीं होने पाती। नामकर्म की अपर्याप्ति प्रकृति ज्ञान से क्षय पाती। नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥८६॥ ॐ ह्रीं अपर्याप्तनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। कर्म उदय से सभी धातु उपधातु देह में थिर रहती। स्थिर नामकर्म की प्रकृति क्षीण आत्मबल से होती॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥८७॥ ॐ ह्रीं स्थिरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./ कर्म उदय से सभी धातु उपधातु न तन में थिर रहती। अस्थिर नामकर्म की प्रकृति नाश आत्मबल से होती॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥८८॥ ॐ ह्रीं अस्थिरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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