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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/६९
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नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥६९।। ॐ ह्रीं उद्योतनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
कर्म उदय से इस शरीर में होता है सदैव उच्छ्वास । यह उच्छ्वास प्रकृति मैं नायूँ पाऊँ अपना ज्ञानप्रकाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७०॥ ॐ ह्रीं श्वासोच्छ्वासनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.।
कर्मोदय से होता है आकाश गमन प्रशस्त प्रभो। प्रकृति विहायोगति प्रशस्त को अब तो नायूँ महा-विभो॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७१॥ ॐ ह्रीं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
कर्मोदय में अप्रशस्त आकाश गमन होता स्वामी। अप्रशस्त प्रकृति विहायोगति को नाखू हे स्वामी॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७२॥ ॐ ह्रीं अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि.।
कर्मोदय से इक शरीर का स्वामी एक जीव होता। यह प्रत्येक प्रकृति क्षय करके प्राणी पूर्ण सुखी होता॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल । निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥७३॥ ॐ ह्रीं प्रत्येकनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।