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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/३९
मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२॥ ॐ ह्रीं सम्यमिथ्यात्वकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
अब सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति नाचूँगा नाथ सदा को ही। इसके झाँसे में न आऊँगा मेरे नाथ कदा को ही॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥३॥ ॐ ह्रीं सम्यक्प्रकृतिकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की हास्य प्रकृति संपूर्ण विनायूँ हे स्वामी। हास्य भाव उपजे न कभी प्रभु यत्न करूँ अन्तर्यामी॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥४॥ ॐ ह्रीं हास्यकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की प्रकृति विनायूँ रति नामक अब तो स्वामी। पर में रति उपजे न कभी प्रभु करूँ यत्न अंतर्यामी॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥५॥ ॐ ह्रीं रतिकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। मोहनीय की अरति प्रकृति को क्षय कर दूँ पूरी स्वामी। अरति भाव उपजे न कभी भी करूँ यत्न अंतर्यामी॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥६॥ ॐ ह्रीं अरतिकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
प्रकृति विनायूँ मोहनीय की स्त्रीवेद अभी स्वामी। वेद भाव सम्पूर्ण मिटाऊँ करूँ यत्न अन्तर्यामी॥