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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/२४
असंयम की भावना भी कुचल देता ज्ञान से। प्रमादों को नष्ट करता सावधान स्वध्यान से । फिर कषायें नष्ट करता प्राप्त करता यथाख्यात । प्रकट कर सर्वज्ञ निज पद ज्ञान का पाता प्रभात ॥ योग क्षय का सतत उद्यम स्वतः होता है अपूर्व। योग क्षय कर सिद्ध होता स्वपद होता ध्रुव अपूर्व॥ साद्यनन्तानन्त कालों स्वयं में करता निवास । विलसता है मोक्षसुख अरु स्वयं की पाता सुवास॥ अभी जिनपथ को सुसम्यक् प्राप्त करना चाहिए। ज्ञानभावी भावना उर व्याप्त करना चाहिए। आत्मसुख की भावना से ओतप्रोत हृदय हुआ। भावना भवनाशिनी का प्राप्त आज समय हआ। मोह भ्रम से रहित होकर शुद्ध जीवन जियूँगा। शुद्ध अनुभव रससहित निज ज्ञान रस ही पियूँगा॥ ज्ञान गुण सम्पन्न होकर रहूँगा आलोक में। शुद्ध बुद्ध प्रबुद्ध होकर बहूँगा निज लोक में। ज्ञान का आवरण क्षय कर पाऊँगा कैवल्यज्ञान।
सिद्ध प्रभु को पूजकर में बनूँगा सबसे महान ॥ ॐ ह्रींज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्योअनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
आशीर्वाद
(दोहा) · . ज्ञानावरण विनाश से, मिले स्वपद निर्वाण। अपने ही बल से करूँ, मुक्ति-भवन निर्माण॥ ...
इत्याशीर्वादः।