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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / १३
निज शुद्धभाव अक्षत ही क्षत भावों को क्षय करता । अक्षय पद का दाता है उर में अखण्ड सुख भरता ॥ हैं श्री सिद्ध परमेष्ठी प्रभु गुण अनंत से भूषित । मैं मुख्य अष्टगुण पूजूँ हो जाऊँ भवदुख विरहित ॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि.। निज शुद्धभाव पुष्पांजलि गुणशील महान प्रदाता । कामाग्नि बुझाती है यह निष्काम भाव की दाता ॥ हैं श्री सिद्ध परमेष्ठी प्रभु गुण अनंत से भूषित । मैं मुख्य अष्टगुण पूजूँ हो जाऊँ भवदुख विरहित ॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि. । निज शुद्धभाव रस चरु ही पद निराहार के दाता । हैं क्षुधारोग विध्वंसक परिपूर्ण सौख्य के दाता ॥ हैं श्री सिद्ध परमेष्ठी प्रभु गुण अनंत से भूषित । मैं मुख्य अष्टगुण पूजूँ हो जाऊँ भवदुख विरहित ॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. । निज शुद्धभाव के दीपक उर में प्रकाश भरते हैं । मिथ्यात्व मोहतम सारा कुछ क्षण में ही हरते हैं ॥ हैं श्री सिद्ध परमेष्ठी प्रभु गुण अनंत से भूषित । मैं मुख्य अष्टगुण पूजूँ हो जाऊँ भवदुख विरहित ॥ ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. ।
निज शुद्धभाव की पावन प्रिय धूप परम हितकारी । वसुकर्म नष्ट करती है देती पद शिवसुखकारी ॥ हैं श्री सिद्ध परमेष्ठी प्रभु गुण अनंत से भूषित । मैं मुख्य अष्टगुण पूजूँ हो जाऊँ भवदुख विरहित ॥
ॐ ह्रीं अष्टगुणसमन्वितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं नि. ।