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साधना पथ उतना दुःख होता है। मोह के कारण पर वस्तु में चित्त जाता है, तो कर्मबंध होता है। अतः सावधान रहें, चारों गति में मोह है। कहीं भी चित्त रखना नहीं। जगत के पदार्थों की तरह आत्मा भी एक पदार्थ है। उसे जगत के साथ कोई संबंध नहीं। आसक्ति के कारण भव खड़ा होता है। अपना नहीं, उसे अपना माने, वह मिथ्यात्त्व है। ___शरीर अपना नहीं। आत्मा शरीर नहीं। आसक्ति छूटे तो जन्म मरण टलें। शरीर मेरा नहीं। देह रूप साधन से अब छूटने का काम करना है। शुभाशुभ भाव अब करना नहीं। शुद्ध भाव करना है, सब भूल जाना है। देहभाव छोड़ना है। कृपालुदेव लिखते हैं, "हम देहधारी हैं या नहीं, इसे जब याद करते हैं तब मुश्किल से जान पाते हैं।” (श्री.रा.प.२५५) कितना अभ्यास? इस भव में कितने कपड़े पहने, वह याद नहीं करता, उसी तरह देह को याद नहीं करना। ज्ञानी की आज्ञानुसार चलें तो कर्म छूटते हैं। "किसी भी कारण से इस संसारमें क्लेशित होने योग्य नहीं है।" (श्री.रा.प.-४६०)
(५२). बो.भा.-१ : पृ.-१३५ मन का विश्वास रखने जैसा नहीं। इसे खाली नहीं रखना। खाली रखा तो कुछ का कुछ कर बैठता है। अतः इसे हमेशा काम सौंपना। पढ़ना, लिखना, विचार करना, सीखना और जीवन नियमित कर लेना। निमित्त अच्छे रखना कि जिससे अच्छे भाव रहे। सभी इन्द्रियों में रसेन्द्रिय बलवान है, इसका पोषण करें तो सभी इन्द्रियों को पोषण मिलता है, जैसे वृक्ष को मूल से पानी मिलता है। सब तरफ से छूटना है। कहीं भी राग या आसक्ति नहीं करना। वचन का भी संयम रखना। जरूरत हो तभी बोलना। अन्यथा स्मरण, वाचन, सद्भावना, भक्ति में रहना। वचन बोलने, सुनने से आत्मा में संस्कार पड़ते हैं, अतः खराब संस्कार न पड़े इसकी सावधानी रखना। सारे संसार में मुख्य वस्तु भोग है। वह भोग जिसे नहीं चाहिए, उसे बाद में सभी सहजता से परमार्थ में मददरूप होते हैं। सारा जगत भोग में पड़ा