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________________ ここ साधना पथ वह "छे देहादि थी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश ।" मैं कभी नाश होनेवाला नहीं, यह जो दृढ़ रहे तो भय नहीं लगता। आत्मा है, नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्ष का उपाय है। ये छः पद सम्यक्दर्शन के कारण हैं। धर्म करने की भावना प्रगट करनी मुश्किल है। (३९) बो. भा. - १ : पृ. ११६ की बड़ी से बड़ी भूल क्या है ? अपना स्वरूप न समझना । इसी से परिभ्रमण है। “जे स्वरूप समज्या विना पाम्यो दुःख अनन्त । " अपने स्वरूप की होश नहीं, इसी से अन्य में राग-द्वेष करता है। स्वरूप के ध्यान के लिए जिसने आत्म स्वरूप प्रगट किया है, उस पुरुष वृत्ति रखना | सिद्ध भगवान सर्व क्लेश से मुक्त हैं और मेरा स्वरूप भी वैसा ही है। जीव ने दुःख को सुख माना है । अपना सुख तीनों काल में रहनेवाला है। वह अज्ञान के कारण ध्यान में नहीं आता । "जहाँ कलपना जलपना, तहाँ मानुं दुःख छांहि; मिटे कलपना जलपना, तब वस्तु तिन पाई । " मेरा तेरा कुछ नहीं। एक आत्मा है, उसकी पहचान करनी है । उत्तम वस्तु आत्मा है। उसकी पहचान हो तो आनंद आएँ। पास में चिंतामणि हो, पर पहचान न हो तो कंकर समझ कर फेंक दे। इसी तरह मनुष्यभव भी चिंतामणि रत्न समान है, उसकी एक पल भी चिंतामणि रत्न जैसी है, व्यर्थ खोने जैसी नहीं । संसार का मूल कारण 'देह मैं हूँ' यह है । यही भारी भूल है । अपना नहीं, उसे जीव अपना मानता है । विपरीतता है । दोष वाला सब दोष दृष्टि से ही देखता है। देह के लिए सब करता है । जीव अभी संसार समुद्र में पड़ा है, उसका क्या कारण ? यह मूल विचार करना है। मुझे बंध क्यों होता है ? उससे कैसे छूट? इसका भी विचार करना है। आत्मा को संसार छूटने का विचार आएँ तो सुविचारणा है। शास्त्र पढ़ पढ़ कर स्वयं को मुक्त करना है। शास्त्र पढ़कर भी आत्मा को यदि न पहचाना तो सब बोझ
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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