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________________ २३ । साधना पथ तरह देहदृष्टि हो गई है। वह यदि मिटे तो सहजता से समज आएँ। विचार करें तो स्वयं को प्रकट प्रतीति हो कि शरीर मेरा मानता हूँ, पर क्षण में इसका रूप बदल जाता है। इस में क्या भरा है? इसमें कैसी वस्तुएँ है? इस तरह यदि विचार करने बैठे तो सब का स्वरूप जैसा है, वैसा ही सद्गुरु की आज्ञा से इसे प्रत्यक्ष दिखें। इस तरह यदि वस्तु का सच्चा स्वरूप दिखें तो फिर राग-द्वेष न हो। विचार करने पर समझ आएँ तो समभाव अवश्य हो। मन को सब तरफ से खींचकर सद्गुरु की आज्ञा में रखें तो सद्विचार प्रगट हो। "आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे" श्रीमद् राजचंद्रजी हम सब यहाँ इकट्ठे हुए हैं। घर के कामकाज छोड़कर बहुत दूर दूर से आकर यहाँ आश्रम में इकट्ठे हुए हैं और ज्ञानी की आज्ञा से जो कुछ भी भक्ति, वाचन, श्रवण करके ज्ञानी की वीतराग दशा पहचानने के लिए पुरुषार्थ करते हैं, उसमें सभी को अपने अपने भाव शोधना है कि मैं सब कामकाज छोड़कर यहाँ किस लिए आया हूँ? वह हो रहा है या नहीं? ऐसा विचार करके प्रत्येक क्रिया करते समय मन को देखना कि क्या कर रहा है? जो करने आया है, वही करता है या अन्य कुछ? इस तरह यदि हम खोजें तो हमें चोर का पता लग जाएँ, दोष का पता लग जाएँ। दोष बारम्बार देखें तो चुभते हैं और उसे टालने का प्रयत्न करें। इसके लिए निरंतर उपयोग रखना है। अन्यथा जो उपयोग रहित भक्ति करें घर के विचार करता रहे या खाने के विचार आएँ, तो आत्मार्थ न हो सके। अतः सावधानी रखनी चाहिए। (२४) बो.भा.-१ : पृ.-३७ पूज्यश्रीः- सांसारिक प्रसंग जीव को याद रहते हैं और फिर रागद्वेषकी परिणति होती है। मुमुक्षुः- न चाहते हुए भी याद आ जाते हैं और परिणाम क्लेशित हो जाता है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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