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साधना पथ है, तब ही परमात्मा का स्वरूप प्रकाश में आता है। अपने स्वरूप में रमणता होती है। अंतरात्मा में रहकर. साधकभाव से परमात्मा का रटण करें तो परमात्मपद मिल सकता है।
किसी से बात करनी हो तो आत्मा की करो। विचार करना हो, तो आत्मा का ही करो। चिन्तन-मनन भी आत्मा का ही करो। मैं देह नहीं, वह तो जड़ है, कुछ नहीं जानती और कुछ कर भी नहीं सकती, नाशवंत है। दगा देनेवाली है। दृश्य पदार्थों में विश्वास मत रखो, सब नाशवंत है। आत्मा के साथ रहने वाले नहीं हैं।
(९) बो.भा.-१ : पृ.-२३ - मैं देह नहीं, आत्मा हूँ। यह भाव ऐसा हो जाना चाहिए कि स्वप्न में भी 'मैं देह नहीं ऐसा होश रहे। इसके ही लिए पुरुषार्थ करना है। जीव को सत्पुरुष में लय लगनी चाहिए, उनके वचनों में अटल श्रध्धा आए, उल्लास हो तो कर्म क्षय होते हैं। इस मार्ग के लिए झूरना (दिल का पूरा निश्चय) चाहिए, संसार से मन उठना चाहिए, यह किये बिना छुटकारा नहीं हैं। प्रथम तो जीव को निश्चय कर लेना चाहिए कि मुझे क्या करना है? फिर वहीं जीव जाता है और उसी में ही रहता है, दूसरा कुछ अच्छा नहीं लगता। मैं देह नहीं, आत्मा हूँ। यह निर्णय हुआ कि दर्शनमोह चला जाता है और आत्मा का उपयोग रहता है। यह जड़ सब व्यर्थ है, दगा देनेवाला है, उसे देखते रहो। विकल्प छोड़ने के लिए देहाध्यास छोड़ना चाहिए। जितना वह कम हो उतना जीव को अपनी तरफ मुड़ने का अवकाश मिलता है।
(१०) बो.भा.-१ : पृ.-२३ जीव को बाहर की वस्तुओं में आश्चर्य लगता है, पर सिद्ध स्वरूप का आश्चर्य नहीं लगता। उसके अनंत ज्ञान, अव्यावाध, अनंत शाश्वत सुख, अनंत शक्ति आदि अनन्त गुणों का जब आश्चर्य लगेगा, तब उस में प्रेम-रुचि होगी। उसे पाने का पुरुषार्थ कर सकेगा। चाहे अभी वह दशा,