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________________ साधना पथ १९९ मुझे आत्मा का कल्याण करना है, यों निश्चय करे तो कर्म हटें। एक मुनि गुफा में ध्यान करने जाते थे। सामने शेर मिला। मुनि के पास लाठी थी वह उठाने की सूझी। तुरन्त विचार आया, “हे जीव ! मरना तो एक ही बार है, तो क्यों ऐसा करता है?" यहीं चुपचाप खड़ा रहा और आत्मा का विचार किया। ऐसा निश्चय कर के खड़ा रहा तो केवलज्ञान हुआ। श्री.रा.उपदेशछाया-७ (१५१) बो.भा.-२ : पृ.-३८२ शरीरकी पराधीनता नहीं, तब तक धर्म कर लेना चाहिए। चारों तरफ दुःख खड़ा हो, तब चित्त स्थिर रहना मुश्किल है। कृपालुदेव के वचन वाँचो, विचारो तो तपस्या से भी ज्यादा लाभ है। समझ आने के बाद जो भी करो, लाभ के लिए है। वचन विचारने से समझ आती है। उपाधि न हो तब जीव को ठीक लगता है, पर उपाधि से भाव उठे तब अधिक आनन्द आता है। आत्मा आनन्दस्वरूप है। खाना-पीना आदि सब कर्म हैं। क्रिया की प्रवृत्ति करते हुए शुभाशुभ भाव की निवृत्ति करनी है। जेम शुभाशुभ कर्मपद, जाण्यां सफळ प्रमाण; तेम निवृत्ति सफळता, माटे मोक्ष सुजाण। । ८९ आ.सि. अनन्त काल से जीव शुभाशुभ भाव करता है। तब तक इसे शुद्ध भाव दिखता नहीं। चित्तस्थिरता की जरूरत है। 'त्याग विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान।' जीव को ग्रहण कर कर के सुखी होने की इच्छा है। पर ज्ञानीपुरुष कहते हैं कि त्याग में सुख है। उपाधि कम करने से सुख होता है। त्याग न बने तो त्याग की भावना रखना। शरीर त्याग नहीं सकते किन्तु इस के प्रति दृढ वैराग्य रखना। कसौटी आने पर ढ़ीला न होना। मरण आने पर सब छोड़ना है, तो पहले से ही त्याग देना। जड़ को जड़ और चेतन को चेतन जाने तो सहज ही वैराग्य रहे। वैराग्य न होने से आत्मा तरफ वृत्ति मुड़ती नहीं। बहुत खाया, बहुत पिया, पर आत्मा का कल्याण हुआ नहीं। वैराग्यमें वृत्ति रहे तब जीवका काम होगा। वैराग्य, अनंत सुख में ले जाने वाला उत्कृष्ट भोमिया (मार्गदर्शक) है।
SR No.007129
Book TitleSadhna Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash D Shah, Harshpriyashreeji
PublisherShrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap
Publication Year2005
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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