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साधना पथ
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यह समझ आने से सहज में आत्म बोध हो । भक्ति से आत्मानुभव में सहज ही स्थिति होती है। अतः सत्पुरुष की भक्ति शिष्य को परम उपकारी है। इसमें सत्पुरुष को स्वार्थ नहीं, परंतु भक्त को कल्याणकारी और मोक्षदा है।
सत्पुरुष को नमस्कार प्रथम उनके उपकार का विचार करने के बाद किया और फिर वह अपूर्व उपकार किसी भी बदले की इच्छा बिना किया, वह विचारको नमस्कार कहा। बाद में सत्पुरुषों ने मोक्ष को देने वाली सद्गुरु की भक्ति दी, अतः उपकार माना और अन्त में आत्मा का अद्भुत केवलज्ञान स्वरूप जिसके योग से प्राप्त होना है, उसका अति उल्लास भाव से सत्पुरुप को नमस्कार किया, वह उत्तम कलशरूप है।
यद्यपि वर्तमानकालमें प्रगटरूपसे केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हुई, परन्तु जिसके वचनके विचारयोग से शक्तिरूपसे केवलज्ञान है, यह स्पष्ट जाना है, श्रद्धारूपसे केवलज्ञान हुआ है, विचारदशासे केवलज्ञान हुआ है, इच्छादशासे केवलज्ञान हुआ है, मुख्य नयके हेतुसे केवलज्ञान रहता है, जिसके योगसे जीव सर्व अव्याबाध सुखके प्रगट करनेवाले उस केवलज्ञान को सहजमात्र में प्राप्त करने योग्य हुआ, उस सत्पुरुष के उपकार को सर्वोत्कृष्ट भक्ति से नमस्कार हो ! नमस्कार हो !
यद्यपि अभी आत्मा में केवलज्ञान व्यक्तिरूप में प्रगट नहीं हुआ, तथापि श्रुतकेवली जैसे श्रुत द्वारा केवली जितना ही सब जान सकता है, उसी तरह सत्पुरुष के वचनरूप श्रुत के विचार से 'मेरी आत्मा में केवलज्ञान शक्तिरूप में है यह स्पष्ट पता लगता है। समकित होने से
श्रद्धा शुद्धस्वरूप की ही है, वहाँ केवलज्ञान अंशरूप में प्रगट हुआ है। 'सर्व गुणांश सम्यकत्व' = आत्मा का समकित गुण प्रगट हुआ वह गुण आत्मा के अनंत गुणका एक समान प्रकाशक है, अतः उसके प्रगट होनेसे अंशमें सब गुण प्रगट हुए हैं उससे श्रद्धारूप केवलज्ञान भी हुआ है। शुद्धस्वरूप का अनुभव होने के बाद उसी का विचार आया करता है । किसी वस्तु की तीव्र इच्छा हो, वह मिले तो जीव को उसी के विचार आते रहते हैं । उसे लक्ष्य में रख कर सब प्रवृत्ति होती है । उसी तरह यहाँ