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साधना पथ को देहरूप मान कर पर वस्तुओं में मेरा-तेरा मान रहा है। ऐसे अज्ञान को दूर करने के लिए ज्ञानी पुरुषों ने ये छः पद का उपदेश प्रकाशा है। सारा संसार देखो तो पर को अपना माननेरूप अहंभाव और पर वस्तु के ममत्वभाव में पड़ा है। इस प्रकार के अनादि काल के मोह, मिथ्यात्व को दूर करने के लिए ज्ञानीपुरुषों ने छः पद समझाए हैं। पर में अपने को माननेरूप स्वप्नदशा से जीव वापिस आ कर यदि अपना स्वरूप विचारे; पर के बदले अपने स्वरूप में परिणमन करें तो तुरन्त ही आत्मभान में आ कर सम्यक्दर्शन को प्राप्त हो। सम्यक्त्व होने से कर्म का क्षय करते हुए अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को, मोक्ष को प्राप्त करें। अपना स्वरूप पर से अलग जानने के बाद पर पदार्थ के निमित्त उसे हर्ष, शोक, संयोग, एकता न हो। देहादि पर पदार्थ विनाशी, अशुद्ध और आत्मा से भिन्न हैं, उसे स्व स्वरूप न मानें। अपना स्वरूप तो उससे भिन्न शुद्ध है, सम्पूर्ण है। उसे किसी की जरुरत नहीं। वह अविनाशी है, परमानंदरूप है। वह जीव को मिथ्यात्व दशा की सात प्रकृतिरूप अंतरपट को भेदने से प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। फिर उसे अपनी भूल समझ में आती है कि आत्मा सिवा अन्यत्र जहाँ एकता की थी वह अध्यास(भ्रान्ति) से भूल हो गई थी। अधि+आस्, जिस स्थान पर बैठे वह अपनी जगह अथवा उस रूप में हूँ - ऐसा हो जाता है, उसी तरह अनादि काल से देह में बसने से देह को ही आत्मा माना अथवा रागादि विभावों को आत्मा माना है। अभ्यास की अपेक्षा अध्यास अधिक दृढ़ता बताता है। अभ्यास तो कदाचित् भूल भी सकें, पर अध्यास तो नींद में भी नहीं भूलता। जब आत्मा का साक्षात्कार हो और आनन्द का अनुभव हो तब आत्मा को सर्व विभाव पर्यायों से सर्वथा भिन्न जानता है, तब दोनों में एकता करने की भूल नहीं करता। मानों दोनों के बीच वज्र की दीवार हो उसी तरह चेतन को जड़ से भिन्न मानता है। स्पष्ट, प्रत्यक्ष, अत्यन्त प्रत्यक्ष, अपरोक्ष वे एक एक से अधिक विशेष शुद्धता का सूचन करते हैं। अपरोक्ष में तो निर्विकल्प समाधि है। वहाँ कोई भी विकल्प नहीं रहता। समकित, उपयोग की सम्पूर्ण स्थिरतारूप में होता है। जब उपयोग आत्मा