________________
साधना पथ
१३६
कृपालुदेव ने कहा 'स्त्रियाँ आती हैं?' तो कहा “हाँ”। कृपालुदेवने कहा, 'उऩ को देख कर विकार होता हैं ?' मुनिने कहा, 'हाँ, परंतु आप हीरामाणेक का व्यापार करते हो वह देख कर आपको आसक्ति होती हैं ? ' कृपालुदेवने कहा, हमें तो वे कालकूट जहर जैसे लगते हैं। पृथ्वी के विकार जैसे या कंकर जैसे लगते हैं।
ज्ञानीपुरुष को देखा हो, पहचाना हो तो दूसरी वस्तुओं के प्रति जो प्रेम है, वह ज्ञानी के प्रति हो । अन्यत्र इसे रुचे नहीं । दूसरी वस्तुओं को अच्छी न गिने । ज्ञानी की पहचान हुई तो ज्ञानी ने जो प्राप्त किया है, वही प्राप्त करना है, ऐसा हो । सत्पुरुष मोक्ष की मूर्ति है, यों लगे। इसका मन स्थिर रहे। सारे जगत का विश्वास उठ जाएँ । आत्मा सुख स्वरूप है, वह अलौकिक है। यह समझ आएँ तो ज्ञानी के सिवा अन्यत्र वृत्ति न जाएँ । महापुरुष पूर्व में ऐसा उपदेश देते थे, तब वे सरल जीव उन वचनों को अवधारण करते थे। प्राण जाएँ पर वचन भूलते न थे । गुण ग्रहण करनेवाले वे जीव थे। सरल जीव थे । अतः वस्तु झट चिपट जाती । 'विशाल बुद्धि, मध्यस्थता, सरलता और जितेन्द्रियता, इतने गुण जिस आत्मा में हों वह तत्त्व पानेके लिये उत्तम पात्र है ।' देह कामका नहीं है। ज्ञानी के वचन काम के हैं, क्योंकि आत्मा को प्रगटानेवाले हैं।
ज्ञानी के वचन की पहचान हो तो देह, धनादि पर दृष्टि न जाएँ । मनुष्यभव दुर्लभ है। उसमें सत्पुरुष का योग और भी दुर्लभ है। सारी जिंदगी काम आने वाले वचन हैं। यह वचन भूलने जैसे नहीं हैं । प्राणत्याग का प्रसंग आए, तो भी ज्ञानी के वचन गौण न करना । ज्ञानी के वचन भूलना नहीं । ज्ञानीपुरुष के वचन ध्यान में रखना । संसार में रुचि न रहे, ऐसा करना है।
ज्ञान बोध से जो लाभ हुआ वह लूट न जाएँ, इसके लिए आत्मा का हितकार्य करते रहना । दृष्टि बदलनी हो तो बदल सकती है। पूर्व में जो कर्म बंध हुआ हो वह तो न बदले, पर दृष्टि तो बदली जा सकती है। ज्ञानी के कथन में लक्ष्य रखना। ऐसे वचन सुन कर आत्मा संबंधी अभ्यास बढ़ाना। आत्मा अपरिचित वस्तु है, अतः अभ्यास की आवश्यकता है।