________________
साधना पथ हो। अंदर से उस का देहाध्यास छूटें, तो कर्ता-भोक्ता का भाव मिटे। यही धर्म का मर्म है।
दूसरी वस्तुओं की जीव संभाल रखता है। किन्तु आत्मा न दिखने से, उसकी संभाल नहीं रखता। आत्मा संबंधी अंतरंग रुचि सत्पुरुष के बिना नहीं होती। आत्मा तो मोक्षस्वरूप है। पर वस्तु में उपयोग तन्मय हो गया है, वह छूटे तो मोक्ष हो। 'तेरा एक आत्मा, आत्मा देखो।' ऐसे प्रभुश्री जी कहते। सत्संग में कषाय मंद होते हैं। मंद कषाय के समय ज्ञानी के वचन की चोट लगती है, इससे उसे अपने हित की गरज़ लगती है। आत्मज्ञानी की दृढ श्रद्धा ही मोक्ष की नींव है। वहीं से धर्म का प्रारम्भ होता है। इसी को शास्त्रों में समकित कहा है। सत्संग में कषाय मंद होकर दृष्टि मध्यस्थ होती है, विचार जागृत होते हैं। सत्पुरुष के संग बिना अरूपी पदार्थ का निर्णय होना बहुत दुर्लभ है।
किस का संग करना? इस का किसी को निर्णय हो, तो भी सत्संग मिलते रहना बहुत दुर्लभ है। कृपालुदेव ने सत्संग के स्थान पर कई जगह सत्पुरुष शब्द का प्रयोग किया है। सत्पुरुष की पहचान होने के बाद भी उसका सत्संग मिलना बहुत मुश्किल है। इतना भी जीव का पुण्य नहीं होता। कृपालुदेव सोभागभाई को लिखते हैं 'आपको सत्पुरुषकी पहचान हुई है पर आपको सत्संग नहीं रहता।'
उपाधि के प्रति द्वेष नहीं करना। यदि द्वेष करे तो नया कर्म-बंध हो। जो जो प्रसंग आएँ, उनमें राग-द्वेष न करना। सुख-दुःख आत्मा को हानिकर्ता नहीं। जीव पर वस्तु की चिन्ता कर के कर्म बांधता है। मन ही शत्रु है, मन ही मित्र है। जीव अपने दोष नहीं देखता। जीव ने नरक में बहुत वेदना सहन की है, वैसा दुःख तो यहाँ नहीं है। समझ पर सब आधार है। सही समझ हो तो सहन कर लें। जीव परेशान हो तो आर्तध्यान हो। उससे कर्म बंधते हैं। मन खाली रहे तो आर्तध्यान हो। जीव संसार की घटमाल में चला जाता है, उसे रोकना। 'थोड़ी देर भले तूं राग द्वेष कर' भगवान ने ऐसा नहीं कहा। भगवान ने तो समय मात्र के प्रमाद की मना