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साधना पथ आत्मा का अनुभव होता है। क्षायिक सम्यक्त्व तो अनुभवरूप, लक्ष्यरूप या प्रतीतिरूप से सदा रहता है। दूसरे सम्यक्त्व में तो परिवर्तन हो जाएँ और चले भी जाएँ। मिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व कड़वे जहर जैसा लगता है। मिथ्यात्व के उदयमें भ्रान्ति होती है। बहुत काल के बोध के बाद मिथ्या श्रद्धा बदल कर आत्मा की सम्यक् श्रद्धा प्रगट होती है। वह निश्चय सम्यक्त्व है। दर्शनपरिषह धीरज से वेदें तो सम्यक्दर्शन होता है। दर्शनपरिषह में सम्यक्त्व कब होगा? ऐसी जीव को जल्दी रहती है। जीव को जब ज्ञानी का स्वरूप समझ आए, तब लगता है कि मेरी मान्यता गलत है और ज्ञानी की मान्यता सच्ची है। बोध बीज और मूल ज्ञान का बारंबार विचार करना चाहिए।
ज्ञानी की आज्ञा का पालन करना। सत्संग विशेष करना, इस से जीव की बुद्धि बदलती है। मार्ग उल्टा ले तो न हो। स्वच्छंद से समकित नहीं होता। ‘रोके जीव स्वच्छंद तो, पामे अवश्य मोक्ष।' इतना हो तो कल्याण हो जाएँ। भगवान ने सम्यकदर्शन किसे कहा? यह विचार करना चाहिए। आत्मा का कल्याण हो, वैसा करना है। ज्ञानी जानते हैं, ऐसा माने तो कल्याण होगा। जीव ने बहुत सुना है पर सत् मिला नहीं। ज्ञानी का बोध सुनना और श्रद्धा करना। आत्मा नित्य है, जगत अनित्य है। आत्मा तीनों काल में है। ऐसी भावना करना। चाहे कितनी भी अच्छी वस्तु क्यों न हो, वह जो नाशवन्त है तो सत् नहीं। बारंबार ज्ञानी का बोध सुनने की अपेक्षा एक वचन की पकड़ भी कल्याणकारी है। ज्ञानी कहते हैं कि आत्मा नित्य है, परन्तु यह जीव अन्यत्र अनित्य में सुख ढूँढ़ रहा है। . वैराग्य हो तो ज्ञानी के वचन चिपकते हैं। आकुलता-व्याकुलता होती है, उसे मिटाने के लिए पुरुषार्थ करें तो वह मिटे। दर्शनपरिषह सुखकारी है। धीरज से वेदें तो सम्यकदर्शन हो। सम्यक्दर्शन के लिए जीव को जल्दी होती हो, व्याकुलता होती हो तो वह दर्शन परिषह है। चाहे कितनी भी मुश्किल हो तथापि ज्ञानी की आज्ञा को तोड़ना नहीं। वैराग्य रखना। जगत में से कुछ भी न चाहिए। ज्ञानी की विशेष भक्ति, सत्शास्त्र