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साधना पथ कितना परिवर्तन लाना है? जीव शुभाशुभ भावों में है, शद्धभाव नहीं है। अन्य भाव न भूलें तब तक शुद्धभाव कैसे आएँ? जगत के प्रति वैराग्य विशेष रखना। आत्मा को क्या हितकारी है? ऐसा विवेक आए तब भक्ति होती है। इस काल में भक्ति की बात भी सुनने को नहीं मिलती, अतः भक्ति होती नहीं। जीव ने प्रेम को अन्यत्र बाँट दिया है। काल बदल गया है। पहले सत्युग में तो महापुरुषों के योग आदि की अनुकूलता सहजता से मिलती थी। परन्तु इस काल में तो भगवान का नाम भी सुनने में नहीं आता। जीव धर्म के स्थानों में भी दूसरी इच्छाएँ रखता है।
जहाँ देखो वहाँ कपट, सत्य नहीं। ऐसे जीवों को ज्ञानी का योग भी कहाँ से हो? हीन पुण्य वाले जीव हैं। चार प्रकार के पुरुषार्थ में से काम
और अर्थ में से वापिस हटना है। इन की इच्छा नहीं रखना। मोक्ष जाना हो, तो इनकी इच्छा त्याग करना। कृपालुदेव कहते हैं कि अज्ञानी की तरह रहो, किसी को पता न चले। श्री.रा.प.-२९९
(१०८) बो.भा.-२ : पृ.-७१ ___सब का सार कहा। सब कुछ करके जगत की विस्मृति करना। मन ऐसा है कि कुछ न हो तथापि विकल्प कर कर के कर्म बाँधता है। दो काम साथ में नहीं होते। जगत को भूलने का लक्ष्य रखना। जिस की महत्ता लगी हो, उसी में चित्त टिकता है। ज्ञानियों ने जो कहा है उसमें चित्त रखोगे तो जीवन सफल होगा। जो आत्मा की महत्ता लगी हो, तो चित्त उसमें टिके, अन्यथा खाने-पीने में चित्त जाता है। यह तो मैंने पढ़ रक्खा है, यह मन्त्र तो मुझे आता है, ऐसा यदि हो तो भी महत्ता नहीं लगती। सब शास्त्रों का सार मंत्र है; ऐसी समझ हो तो इसका विचार आएँ। जगत को भूल कर महापुरुष के चरणों में चित्त रखना है, इसकी महत्ता रहे तो चित्त टिके। कर्म के कारण अन्य-अन्य मन में आता है, पर मुझे तो जगत को भूलना है और सत्पुरुष में चित्त रखना है। इतना करे तो इसका बल बढ़ता है, जिस से कर्मों को जीत जाता है। जो करे, उसमें संसार का लक्ष्य रखे और फिर तप-जप करे तो यह संसार का कारण है। जो पुरुषार्थ न करे तो