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साधना पथ
को कहा है वह करूँ, इस तरह निवृत्तिमें बैठ कर विचार करें। उपाधि में रहना पड़ता हो तो मुझे यह छोड़ना है, ऐसा विचार रखें। इस मनुष्यभव में ही मिथ्यात्व में से समकित हो सकता है । चारित्रमोह क्षय हो सकता है। उसमें भी जो उल्टी-सीधी उपाधि में पड़ें, तो कब पार आएँ ?
ज्ञानी की शिक्षा अनुसार चलने का लक्ष्य रखता हो, वह शिष्य है। हे जीव ! अनेक भव व्यर्थ गएँ, अब यह मानवभव व्यर्थ न जाएँ, यह लक्ष्य रख। पुनः ऐसा जोग दुर्लभ है। मनुष्यभव, श्रावक कुल, सत्शास्त्र का जोग पुनः पुनः मिलना दुर्लभ है । निवृत्ति में आनंद आए, इसके बिना कुछ अच्छा न लगे तो निवृत्ति के लिए जीव समय निकालता है । निवृत्ति का अभ्यास न करे तो प्रवृत्ति नहीं मिटती । प्रभुश्रीजी कहते कि साधुपणा तो आएगा तब की बात, पर दो तीन महीने सत्संग करेंगें उतना तो काम आएगा। अन्य सब छोड़कर सत्संग को साधें तो इतना तो साधकपना कहा ही जाए न ? जीव को निवृत्ति रुचती नहीं । कई कहते हैं कि सारा दिन यह क्या भक्ति करता है ?
तब
मिथ्या वासना छोड़ने की प्रथम जरूरत है। यात्रा करने जाएँ, मानता न माने, धन आदि की इच्छा न करे। मोक्ष मिले, अतः धर्म करूँ; ऐसा सोच कर धर्म करने वाले तो थोड़े ही होते हैं। साधुता से देवलोक मिलेगा, ऐसी इच्छा से बहुत से धर्म करते हैं । बगला पानी में एक पैर उँचा रखकर खड़ा रहता है, मछली आए कि तुरंत पकड़ लेता है। इस तरह जीव धर्म के नाम पर मिथ्यावासना का सेवन करते हैं।
"मरणना मुख आगळे, अशरण आ सौ लोक, कां चेती ले ना चतुर ! मूकवी पडशे पोक ।"
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बो. भा. -२ : पृ. ४७
बोलते समय सावधानी रखने की जरूरत है । किससे कहें कि तुम लोग क्रिया ठीक नहीं करते, तो यह जीव प्रमादी होने से क्रिया करना ही छोड़ देंगे।
श्री. रा.प. २०७