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________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग पूर्णदशा अर्थात् परमात्मदशा प्राप्त करने की रुचिका उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ पृष्टबल, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य आवश्यकता है । उक्त रुचि के अभाव में भेदज्ञान की कोई प्रकार की पद्धति सफल नहीं हो सकती । ७ सर्वप्रथम अज्ञानी को ज्ञानी बनने के लिये अपने स्वरूप अर्थात् त्रिकाली-ज्ञायक- ध्रुव रूप को, अपना अस्तित्व मानने के लिये समझकर - पहिचानकर - निर्णय करना अनिवार्य है । इस प्रक्रिया में ज्ञान, बर्हिलक्ष्यी वर्तते हुए इन्द्रियों के माध्यम से कार्य करता है । ऐसे ज्ञान के द्वारा आत्मस्वरूप समझने का कार्य तो होता है; लेकिन आत्मानुभव नहीं होता। फिर भी उक्त रुचिपूर्वक निर्णय हुए बिना, आत्मानुभूति की प्रक्रिया भी प्रारम्भ करने योग्य पात्रता प्रगट नहीं होती । उक्त निर्णय प्राप्त करने के लिये, अपने ज्ञायक- ध्रुव का स्वरूप पहिचानकर, उसका अन्य सबसे (ज्ञेयमात्र से) भिन्नता का भेदज्ञान किया जाता है, वह प्राथमिक दशा प्राप्त आत्मार्थी का भेदज्ञान है । इस की सफलता का मूल आधार तो अपना स्वरूप समझना है। परज्ञेयों का स्वरूप समझकर अथवा विचार कर उनसे भिन्नता के विकल्प करना, भेदज्ञान का आधार नहीं है। जैसे अन्य धातुओं के मिश्रण से स्वर्ण का भेदज्ञान करना हो तो, शुद्ध स्वर्ण के स्वरूप का ज्ञान ही मूल आधार होता है अन्य धातुओं का नहीं । जल मिश्रित दूध में दूध की पहिचान के लिये, दूध के स्वरूप का ज्ञान आधारभूत होता है, जल का नहीं आदि-आदि अनेक दृष्टान्त हैं। इसीप्रकार अपना आत्मा भी अन्य ज्ञेयों के साथ मिश्रित हो गया हो, ऐसा अनुभव में आता है। भेदज्ञान के द्वारा अपने आत्मा को उनसे अलग समझने- पहिचानने के लिये, अपने (ज्ञायक के) स्वरूप की
SR No.007121
Book TitleBhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages30
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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