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________________ २१ - - - भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग तन्मयतारहित जानते है; इस प्रकार परज्ञेयों को भी जानते अवश्य है, लेकिन लीनता रहित मात्र ज्ञान होता है। फलतः अनंतकाल तक सर्वज्ञता के साथ वीतरागी रहकर, अनन्त अतीन्द्रिय सुख को भोगते हुए परिणमते रहते है। इसके विपरीत अज्ञानी - मिथ्यादृष्टि, आनादिकाल से श्रृंखलाबद्ध चलती आरही, विपरीत मान्यता-श्रद्धा के कारण, स्व को भूलकर, पर को ही स्व के रूप में जानता-मानता एवं आचरण करता चला आ रहा है। ऐसा मानने से पर तो स्व होता नहीं, फलतः पर में आचरण भी सफल नहीं होता, प्रत्युत प्रतिसमय आकुलता के साथ विकार की उत्पत्ति करता है। प्रश्न- जिनवाणी में विकार को संयोगी भाव भी कहा है। वह कैसे ? उत्तर - किसी द्रव्य का किसी द्रव्य के साथ संयोग तो होता नहीं और आत्मा तो अमूर्तिक है, अमूर्तिक के साथ तो किसी का किसी प्रकार भी संयोग हो नहीं सकता। ऐसा होने पर भी, जब अज्ञानी को परज्ञेयों का ज्ञान होता है, उसी समय, स्व पर को मेरा मानने की विपरीत श्रद्धा भी श्रृंखलाबद्ध चली आ रही होती है; फलत: मान्यता में वह पर को अपना मान लेता है। इस प्रकार मान्यता में वह पर के साथ संयोग कर लेता है; इस कारण, विकारों को संयोगी भाव कहा गया है। और इसी अपेक्षा उन भावों को परकृत (पर से उत्पन्न हुये भाव) भी कह दिया जाता है। वास्तव में न तो किसी का संयोग होता है और न अन्य संयोग कराने वाला ही होता है। फिर भी विकार भाव को संयोगी कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा पर (परज्ञेय) को अपना मानना छोड़ दे; ऐसा होने से मान्यता में भी पर का संयोग नहीं होगा तो संयोगीभावों का उत्पादन भी नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि
SR No.007121
Book TitleBhedvigyan Ka Yatharth Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages30
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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