SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Foreword मथुरा का पुरातत्त्वीय वैभव - जैन समाज का दिशा-दर्शक मथुरा का जैन पुरातत्त्व जैन संस्कृति का आधार कहा जा सकता है। मथुरा के पुरातत्त्व के अध्ययन के बिना जैन धर्म का सम्यक् इतिहास नहीं जाना जा सकता है। यदि हमें जैन धर्म का सम्प्रदाय निरपेक्ष इतिहास जानना है, तो हमें मथुरा के अभिलेखों और उसकी पुरातत्त्वीय सामग्री का अध्ययन करना होगा। जैन सम्प्रदायों का विकास कैसे-कैसे हुआ है, इसको समझने के लिए हमें मथुरा के जैन स्तूप और उससे प्राप्त पुरातात्वीक सामग्री को समझना आवश्यक है। जैन धर्म से सम्बन्धित प्राचीन अभिलेखों में बड़ली के अभिलेख को छोडकर प्राचीनतम अभि ही प्राप्त होते है, चाहे जैन मूर्तिकला के विकास की बात हो या जैन देव-मण्डल के विकास की बात करना हो मथुरा का पुरातत्त्व उसकी एक आधारभूत इकाई है। जैन-इतिहास और जैन सम्प्रदायों के विकास को जानने हेतु मथुरा का जैनशिल्प एक आधार-भूमि प्रस्तुत करता है। जैन मुनियों के नग्नत्व से लेकर परवर्तीकाल से हुए वस्त्र-पात्र से सम्बन्धित विकास को समझने हेतु मथुरा के जैनशिल्प दिशा दर्शक है। यदि हम मथुरा के पुरातत्त्व को देखे तो उसमें सम्प्रदाय-निरपेक्ष जैन इतिहास अभिव्यक्त होता दिखाई देता है - उदाहरण के रूप में मथुरा में अधिकांश जिनमूर्तिया पद्मासन में मिलती है, और जो भी खडगासन की प्रतिमाएँ है वे तो स्पष्टतया नग्न है और जो पदमासन की प्रतिमाएँ है, उन पर वस्त्र का कोई चिह्न नहीं है, जो जैन इतिहास के प्राचीनतम स्वरूप का बोधक है। जैन मुनि के नग्नत्व से लेकर परवर्ती वस्व-पात्र के विकास की अनेक कड़ियाँ मथुरा के जैन पुरातत्व में ही उपलब्ध होती है। जब जैन धर्म से सम्बन्धित अभिलेखों को देखते है, तो पता चलता है की उनमें जिन गणों, शाखााओ और कुलों का उल्लेख है, वे सब श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र की पट्टावली के अनुरूप है। उनमें जिन गणों, कुलो और शाखाओं का उल्लेख हुआ है, वे सब कल्पसूत्रों की पट्टावली या थेरावली के अनुरूप ही है। किन्तु दूसरी ओर जिन-प्रतिमाओं की पादपीठ पर जो जैन मनियों की मर्तियो के अंकन हैं वे जैन सब जैन धर्म के सम्प्रदायों के विकास की कहानी कहते प्रतीत होते हैं। मुनि मूर्तियाँ नग्न भी है, और उनके हाथ में कम्बल और मुख वस्त्रिका भी परिलक्षीत होती है। जैन धर्म में सम्प्रदायों की विकास का पारम्परिक मान्यताओं से निरपेक्ष जो इतिहास है वह तो हमें मथुरा के पुरातत्त्व में ही मिल पाता है। एक ओर मुनि मूर्ति नग्न है, तो दूसरी ओर उसके एक हाथ में पिच्छी है, जो दिगम्बरत्व की सूचक है, दूसरी ओर उसी मुनि के दूसरे हाथ में श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप झोली और पात्र भी है। यह सब इस बात का सूचक है कि जैन धर्म के आचार-विचार में वस्त्र-पात्र का विकास किस क्रम से हुआ है, यह तथ्य हमें मथुरा के पुरातत्त्व से ही प्राप्त होता है, कहा जाता है कि पाटलीपुत्र के पश्चात् जैन धर्म की मुनि-परम्परा दो भागों में विभक्त हुई, एक परम्परा बंगाल की खाडी के तटों से गुजरते हुए उडीसा, आंध्र और तमिलनाडु के रास्ते से होती हुई लंका तक पहुँची .
SR No.007031
Book TitleJaina Stupa At Mathura Art And Icons
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRenuka J Porwal
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages306
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy