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तुम मेरी राखो लाज हरी । तुम जानत सब अन्तरजामी ॥
करनी कछु न करी ॥१॥
औगुन मोसे बिसरत नाहि,
पल छिन घरी घरी । सब प्रपंच की पोट बाँध करि
अपने सीस धरी ॥२॥
दारा सुत धन मोह लिये हौं
सुधि-बुधि सब बिसरी । सूर पतित को बेग उबारो,
अब मेरी नाव भरी ॥३॥
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