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मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई। दूसरा न कोई, साधो, सकल लोक जोई ॥ भाई छोड्या, बंधु छोड्या, छोड्या सगा सोई । साधु संग बैठ बैठ लोक-लाज खोई ॥१॥ भगत देख राजी हुई, जगत देख रोई । अँसुवन जल सींच सींच प्रेम-बेलि बोई ॥२॥
दधि मथ घृत काढ़ि लियो, डार दई छोई । राणा विष को प्यालो भेज्यो, पीय मगन होई ॥३॥
अब तो बात फैल पड़ी, जाणे सब कोई । मीरां प्रेम लगण लागी, होनी होय सो होई ॥४॥
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घूघटका पट खोल रे ! तोको पीव मिलेंगे। घट घटमें वह साँईं रमता कटुक वचन मत बोल रे ॥ धन-जोबन को गरब न कजै झूठा पचरँग चोल रे ॥ सुन्न महलमें दियना बारिले आसन सों मत डोल रे ॥ जाग जुगुत सों रंग-महलमें पिय पायो अनमोल रे ॥ कहै कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहद ढोल रे ॥
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