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चरित्र चित्रण - पौराणिक महाकाव्य पउमचरिउ के सभी पात्र सबके लिए चिर परिचित हैं। इन सभी पात्रों के चरित्र-चित्रण में कवि स्वयंभू की अपार मार्मिकता, हृदयग्राहिता और प्रभावकारिता दिखाई देती है। राम और सीता सभी पात्रो में प्रधान हैं।
राम-राम के जीवन के अनुकरण से प्रत्येक मानव अपनी जीवनयात्रा को क्रमशः सार्थक बना सकता है। नायक के चरित्र के माध्यम से महाकाव्य के इस महत् उद्देश्य की अभिव्यक्ति करने में कवि पूर्णतः सफल सिद्ध हुए हैं। कैकेयी के द्वारा अपने पुत्र भरत के लिए राज्य मांगने से लक्ष्मण को भरत - कैकेयी और दशरथ पर क्रुद्ध और अनर्थ करने पर तुला देखकर दूरदर्शी राम आगामी पारिवारिक कलह को जान लेते हैं। वे यह भी जान लेते हैं कि उनके अयोध्या मे रहते भरत के लिए राज करना संभव नहीं होगा। तब पति के आदेश को स्वीकार कर राम साथ में चलने को तैयार सीता और लक्ष्मण को साथ में लेकर स्वेच्छा से वन की राह लेते हैं। तब भरत के प्रति ईर्ष्या द्वेष से रहित राम पारिवारिक कलह का निवारण करते हैं। वे कहते हैं कि जिस कार्य से पिता का वचन खण्डित हो उस राज्य को क्यों लिया जाय- रज्जे किज्ड काई तायहो सच्चविणासें - प.च.२३.८
गंभीर नदी के तट से आती हुई भरत की सेना को नीतिपरायण राम यह कहकर लौटा देते हैं तुम लोग आज से भरत के सैनिक बनो। रावण की मृत्यु के बाद भी राम विभीषण के अनुनय विनय पर ही सीता से मिलने नन्दनवन में जाते हैं। राम के वन-गमन पर सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के दलन और मान-मत्सर भंग की अनेक घटनाएँ होती हैं। आदर्श शासक के रूप में राम ने आजीविका के लिए सारी धरती सामन्तों को बांट दी और लोगों को जीवन-दान दिया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो भी राजा हुआ है या होगा उससे मैं यही चाहता हूँ कि वह दुनियाँ में किसी के प्रति कठोर न होवे । न्याय से दसवाँ अंश लेकर प्रजा का पालन करे। वही राजा अविचल रूप से राज्य करता है - जो धरती का पालन करता है, प्रजा से प्रेम रखता है तथा नय और विनय में आस्था रखता है। लोकमत का आदर करते हुए राम ने अपने राजपद का निर्वाह किया।
सीता- पउमचरिउ में सीता नारी-सुलभ सहज भावों से युक्त होने से सहज चित्त हैं। इस रूप में वे कभी भयभीत होकर करुण विलाप करती हुई अपने भाग्य को कोसती नजर आती हैं तो कभी मातृत्व भाव से शुभकामनाएँ देती हुई दिखती हैं। वही सीता जब रावण द्वारा हरण किये जाने पर राम से वियुक्त होती हैं तो अपने शील की रक्षा के प्रयत्न में कठोर बन जाती हैं। इनके जीवन में शील के सौन्दर्य को विकृत करने वाले अनेक उपसर्गकारी प्रसंग आते हैं किन्तु सीता उपसर्गों की उस घड़ी में अविचलित होकर अपने शील की रक्षा तो करती ही है साथ ही उपसर्ग करने वालों को भी प्रभावहीन कर देती है । पउमचरिउ काव्य की सीता एक ऐसा आदर्श रत्न है जो प्रत्येक महिला को सहज चित्त, शीलवान, गुणानुरागी तथा नीतिज्ञ बनने का संदेश देती है।' वह यह भी घोषणा करती है कि इन गुणों को अपनाकर आज भी वह विश्व के सन्दर्भ में भारतीय संस्कृति के लुप्त होते हुए गौरव को पुनः प्रतिष्ठित स्थान दिलवाने में समर्थ हैं। उस सती सीता का मन रावण उसी प्रकार नहीं पा सका जैसे मूर्ख व्यक्ति व्याकरण का भेद नहीं प्राप्त कर पाता। यथा -पर-पुरसेहिं णउ चित्तु लइज्जई, वालेहिं जिह वायरणु ण भिज्जइ - प.चं. ४४.१०
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