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________________ दो गाथाएँ धम्मपद में भी मिल गई हैं। आचार्य असंग ने यथोक्तं सूत्रे (जैसा सूत्र में कहा गया) इस अवतरणिका वाक्य के साथ संस्कृत में गाथापाठ यों किया है - तुलनार्थं धम्मपद के पाठ पर दृष्टि डालनी चाहिए - मातरं पितरं हत्वा राजानं (? राजानौ ) द्वौ बहुश्रुतौ । राष्ट्रं सानुचरं हत्वा नरो विशुद्ध उच्यते । धम्मपद २९४ दोनों पाठों में भेद नगण्य है। संस्कृत श्लोक में दो राजा बहुश्रुत कहे गए हैं। श्री प्रह्लादप्रधान जी ने जो टिप्पणी दी है, उसके अनुसार भोग रूपान्तर में दो राजा श्रोत्रिय हैं - वेदज्ञ है ( द्वौ च श्रोत्रियौ ) " नरो विशुद्ध उच्यते " के स्थान में पालिपाठ “ अनीघो याति ब्राह्मणो " है । मातरं पितरं हन्त्वा राजनो द्वे च खत्तिये । रट्ठ सानुचरं हन्त्वा अनीघो याति ब्राह्मणो । धम्मपद में दूसरी गाथा भी पूर्व गाथा के अनन्तर कही गई है। वह भी इस प्रसंग में ध्यान देने योग्य है - मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च सोत्थिये । वेय्यग्घपंचमं हन्त्वा अनीघो याति ब्राह्मणो ॥ धम्मपद २९५ इस पाठ में दो राजा श्रेत्रिय कहे गए हैं तथा 'रट्ठ सानुचरं हन्त्वा ' के स्थान पर 'वेय्यग्घपंचमं हन्त्वा ' पाठ है। इस प्रकार की गूढता से युक्त स्थलों को करना, व्याख्या के द्वारा उनका जो यथार्थ अभिप्राय है-ठीक ठीक तात्पर्य है, उसे बताना व्याकरण है। फिर अनुचर Jain Education International यहाँ मातृघात से अभिप्राय तृष्णानिरोध से है। अट्ठकथाकार ने इसे स्पष्ट किया है। 'तृष्णा माता' अर्थात् तृष्णा माता है। पितृघात से अभिप्राय अहंता अहंभाव के निवारण से है। अट्ठकथाकार ने इसे स्पष्ट करते हुये कहा है - ' अस्मिमानो पिता ' अर्थात् मैं 'हूँ' इसका मान करना ही यहाँ पिता शब्द से अभिप्रेत है। क्षत्रिय हों चाहे श्रोत्रिय हों अथवा बहुश्रुत हों । यहाँ राजयुगल के बध से अभिप्राय शाश्वत दृष्टि और उच्छेद दृष्टि को दूर करने से है। अट्ठकथाकार ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है-' सरसतुच्छेददिट्ठियो द्वे राजानो' अर्थात् शाश्वत दृष्टि, नित्यध्रुव - कूटस्थवाद की दृष्टि एवं उच्छेद दृष्टि, अन्त - अभाव - विनाश की दृष्टि दो राजा है । सानुचर राष्ट्रघात से अभिप्राय तृष्णा सहित द्वादश आयतनों को दमन कर लेने से है। अट्ठकथाकार ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है - द्वादसायतनानि रट्ठ' अर्थात् बारह आयतन राष्ट्र हैं। आयतन बारह यों हैं - - छह इन्द्रियाँ - चक्षु, श्रोष, घ्राण, जिह्वा, काय एवं मन । छह विषय-रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्प्रष्टव्य एवं धर्म ॥ र को स्पष्ट करते हुए अट्ठकथाकार ने बताया है - नन्दिरागो अनुचरो । तृष्णा, आसंग, आसक्ति, -223 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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