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बिना बहुत देर किये ही यह शरीर धरती पर लुढ़क जाएगा, ज्ञानहीन हो जाएगा और बेकार के काष्ठ-खंड के समान फेंक दिया जाएगा। इस अहंता तथा ममता को बौद्ध परिभाषा में सत्कायदृष्टि कहते हैं। सत् शब्द का अर्थ है, विशीर्ण होने वाला, बिखर जाने वाला तथा काय का अर्थ है, चय, संघात या स्कन्ध। ये तीनों शब्द समूहवाचक हैं। अभिधर्मकोश (५/७) में भाष्य में विवरण करते हुए आचार्य वसुबन्धु ने यही कहा है - सीदतीति सत्। चयः कायः संघातः स्कन्ध इत्यर्थः। लोकरीतिः
पोराणमेतं अतुल नेतं अज्जतनामिव । निन्दन्ति तुण्हीमासीनं निन्दन्ति बहुभाणितं ।
मितमाणितं पि निन्दन्ति नत्यि लोके अनन्दितो।।-धम्मपद २२७ हे अतुल, यह पुराना मामला है, यह आज की (ही) बात नहीं है, जो चुप रहता है, उसे भी बुरा भला कहा जाता है, जो बहुत बोलता है, वह भी रगड़ा जाता है, जो थोड़ा बोलता है, उसकी भी शिकायत की जाती है। दुनिया में किसी को दूध का धोया नहीं कहा जाता।
अनात्मवाद -
तथागत ने आत्मवाद के आरोप के विपरीत एक नई बात कही। उन्होंने कहा -
सब्बे धम्मं अनत्ताति यदा पसार पस्सति ।
अथ निबिन्दति दुक्खे एस मग्गो विसुद्धिया।। - धम्मपद २७९ अर्थात् सब धर्म अनात्मक हैं। इनमें आत्मा कहीं नहीं है, इस बात को जब प्रज्ञा से देखता है तब दुःख (दुःख-मय संसार) के विषय में वह विरक्त होता है। यह विशुद्धि का मार्ग है। सब धर्म अनात्मक हैं।
लक्षणों के द्वारा तथा वर्गीकरण की विधि से संवृतिसत्य तथा परमार्थसत्य को समझने का यत्न बुद्धकालीन है। तथागत सत्त्व को अर्थात् अत्मा, जीव, जन्तु, पुद्गल, पुरुष आदि शब्दों से संकेतित पदार्थ को सम्मुति(=संवृति)कहते थे। भदन्त नागसेन ने तथागत की एक गाथा उद्धृत की है -
यथा हि अंगसंभारा होति सहो रथो इति।
एवं खन्धेसु सन्तेसु होति सत्तोति संमुति॥ (मिलिन्दप्रश्न) जैसे रथ शब्द का प्रयोग अंग-सामग्री के कारण-पहिए, बल्लियों, जुए तथा ढांचे को संगठित होकर एक यान का रूप धारण करने के कारण होता है; वैसे ही स्कन्धों के होने पर-स्कन्धों के विशेष प्रकार के संगठन में प्रकट होने पर सत्त्व की, जीव की संवृति होती है। अभिप्राय यह हुआ कि आत्मा या जीव एक पदार्थ है, जो संवृतिसत्य है, परमार्थसत्य नहीं है। यह संवृति यतः स्कन्धों के कारण होती है, अत: विवेकी यदि कुछ भी असावधान हुआ, तो वह स्कन्धों में ही आत्मा या जीव को खोजने लगेगा अथवा स्कन्धों को ही आत्मा या जीव समझ लेगा। विवेकपरायण कहीं ऐसा न कर बैठे, इसलिए तथागत ने कहा है -
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