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शरीर के वाम भाग स्वरईड़ा (इंगाल, दाहिने भाग का पिंगाला नाम है । दोनों के एक साथ चलने पर सुषुम्ना स्वर कहलाता है । इसके पाँच तत्व हैं - १. पृथ्वी, २. जल, ३. अग्नि, ४. वायु, और ५. आकाश । शरीर का कौन सा द्रव्य उपकारक है और कौन सा द्रव्य अपकारक है उसका भी विवेचन इसमें है । प्राकृत ग्रन्थों में चिकित्सा के आठ प्रकारों का उल्लेख है । चिकित्सा पाद - १. वैद्य २. वैद्यपुत्र ३. ज्ञायक ४. उनके पुत्र । विजो विजापुत्तो वा जाणगो व जाणयपुत्तो । तेइच्छिओ वा तेंइच्छियपुत्तो वा इक्काइइटकूडस्स एएसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं। (विपाकसूत्र १/१/पु. १३३)
उत्तराध्ययन सूत्र में १. वैद्य २. रोगी ३. औषध और ४. परिचारक का उल्लेख है - ते से तिगिच्छं कुव्वंति चाउप्पायं । जहादियं(उ. २०-२३) इसके अतिरिक १. वैद्य २. मन्त्रवेत्ता ३. चिकित्सक ४. शल्यचिकित्सक और ५. अन्य शास्त्र भी चिकित्सा के कारण हैं । (उ.२०/२२) मूलाचार में भी यही लिखा है(गा. ४१).
वेज्जादुर, भेसज्जा, परिचायर-संयदा जहारोग्गं ।-१. वैद्य २. आतुर ३. भैषज्य और ४. परिचारक ।
इसका अध्यात्म पक्ष देते हुए कहा गया है - आचार्य वैद्य हैं, शिष्य रोगी है, भैषज चर्या चारित्र है, क्षेत्र, बल, काल, पुरूष आदि रोग शान्त करने के साधन हैं ।
चिकित्सक - चिकित्सक को प्राणाचार्य (उत्त सू. ४७५), वैद्य - (मूला ६४२) तेगिच्छिय, तिगिच्छय (विपाक सू.) नाम से जाना जाता था। चिकित्सक कर्म -
विपाक सूत्र में वर्णन है कि वैद्य - ‘सत्थकोस हत्थगया' शस्त्रकोष एवं हस्त के औजार जिससे चीड़-फाड़ या शलाकाक्रिया या शल्य क्रिया की जा सके ऐसे साधनों से युक्त होकर घर से रोगों को देखने निकलते थे । वे अवश्यकतानुसार वमन,विरोचन, उबटन, स्नेहपान, अभ्यंग, अवदहन (गर्भशलाका दहन) अवस्नान द्वारा चिकित्सा करते थे । (औषधिस्नान) जैसा कि जोणिपाहुड में कुष्ठरोग प्रकरण (गा. १६०) में कहा है ।
" तिहला पाणेण सया प्रहाणे अवहणम्मि लेवेण ।
पिजह कुट्ठी य तहा वासय मीसा ण संदेहो ॥ -गा. १७०) वैद्य पान, स्नान, उपवर्तन, लेप से रोगो का उपचार करते थे । चिकित्सक शस्त्र
प्राकृत ग्रन्थ निशीथचूर्णि में प्रतक्षण शस्त्र, अंगुलिशस्त्र, शिरावेधनशस्त्र, कल्पनशस्त्र, लौहंकंटका, संडासी, अनुवेधन शलाका, ब्रीहिमुख और सूचि का उल्लेख मिलता है । (११/ ३४३६)
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