SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उक्त प्रायः सभी शब्द यत्किचित, स्थानीय उच्चारण-बनाने की दृष्टि से प्रभावित होकर मराठी, पंजाबी तथा प्रायः समग्र हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में आज भी प्रयुक्त होते हैं। वर्णन-प्रसंगों को सजीव और रोचक तथा गेय बनाने की दृष्टि से पुष्पदन्त ने ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में किये हैं। उन्होंने वस्तुओं का साक्षात्कार कर तथा उनकी ध्वनि को साकार बनाने की दृष्टि से तदनुकूल ध्वन्यात्मक-शब्दों का निर्माण कर उनके प्रयोग किये हैं। सरल वर्णन-शैली __महाकवि पुष्पदन्त की वर्णन-शैली की विशेषता है कि वे किसी भी जटिल विषय को सरलतम भाषा-शैली में सर्वगम्य बना देते हैं। धर्म शब्द की व्यख्या देखिये, उन्होंने प्रश्नोत्तरी-शैली में किस प्रकार प्रस्तुत की है। कोई भक्त-साधक एक मुनिराज से प्रश्न करता है कि महाराज मुझे समझाइये कि धर्म क्या है ? यथा - भक्त साधक का प्रश्न मुनिराज का उत्तर पुच्छियउ धम्मु जइवरिजइ जो सयल: जीवहॅ दय करइ।। जो अलियपयं पुणु परिहरइ जो सउच्चे रइ करइ । वज्जइ अदत्तु णिय पियर वणु जो ण घिवइ परकल्लत्ते णयणु । जे परहणु तिणसमाणु गणइ जो गुणवंतउ भत्तिए थुणइ । एवइँ धम्महो अंगई जो पालइ अविहगइ । जो जि धम्मु सिरि तुंगइ अण्णु कि धम्मु होइ सिंगई ? प्रश्न - मुनिप्रवर से भक्त ने पूछा कि - धर्म क्या है ? तब मुनिप्रवर उत्तर में कहते हैं - धर्म वही है, जिसमें समस्त छोटे-बड़े जीवों पर दया की जाय और असत्य -वचन का परिहार करके जहाँ सुन्दर प्रिय हितकारी सत्य सम्भाषण किया जाय । जहाँ बिना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण न की जाय और जहाँ परस्त्री की ओर आँख उठाकर भी न देखा जाय, (जो स्वदार-सन्तोषी हो), जहाँ पराया धन तृण के समान माना जाय, और जाहाँ गुणवानों के प्रति आदर-सम्मान तथा भक्तिभाव हो, ये ही धर्म के अंग हैं। जो इनका अवधगति से पालन करता है, वही धर्म है और क्या धर्म के सिर में बड़े-बड़े सींग लगे होते है, जो दिखाई दें? भक्त पुनः प्रश्न करता है कि धर्म पालन करने की आवश्यकता क्यों है ? तो कवि उसके उत्तर में कहता है - वरजुवइ वत्थभुसण संपत्ति होइ धम्मेण । अर्थात् सुन्दर युवति, मूल्यवान्-वस्त्राभूषण आदि सम्पत्ति की प्रप्ति धर्म से ही होती है और - - 193 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy