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________________ आचार्य-लेखकों की अपूर्व-साधना एवं दिव्य-प्रतिभा के प्रति निरहंकारी-वृत्ति तथा सम्मान-प्रदर्शन की भावाभिव्यक्ति ही है। क्योंकि उनकी तिसट्टिमहा. की आद्य-प्रशस्ति (१/९) से विदित होता है कि उन्होंने अकलंक, कपिल, कणाद, द्विज, सुगत, इन्द्र (चार्वक) के अनेक नय-सिद्धान्तों का अध्ययन, दत्तिल एवं विसाहिल द्वारा रचति संगीत-शास्त्र, भरत-मुनि कृत नाट्यशास्त्र का भी अध्ययन किया था। इतने विशाल एवं ज्ञान-विज्ञान समन्वित पूर्वाचार्यों के शास्त्र-साहित्य का अध्येता यदि अपने को अल्पज्ञ और मन्दमति कहे, तो यह उसकी पूर्ववर्ती साहित्य-साधकों-लेखकों के प्रति विनयशीलता ही है। यथार्थतः तो उनकी काव्य-शक्ति और चतुर्विधअनुयोगों के ज्ञान की प्रौढता का दर्शन अन्यत्र दुर्लभ ही है। इसके विपरीत पुष्पदन्त ने अपने लिये जिन अभिमानमेरु, अभिमानचिन्ह, काव्य-पिशाच, कविकुलतिलक, जैसे उपाधि-चिन्हों से युक्त किया है, वे केवल उन निरंकुश, वात्सल्य-गुण विहीन, गर्वीले शासकों के लिये थे, जो साहित्य-साधकों और महाकवियों के प्रति आदर-सम्मान का भाव नहीं रखते थे तथा उन्हें दीन-हीन सेवक, चाट्रकार और पिछलग्ग समझते थे। भाषा तिसट्टिमहा. की भाषा साहित्यक अपभ्रंश है। उसमें देशी-शब्दों अर्थात् भरत मुनि के नाट्यशास्त्र (१७/ ४८) के अनुसार विभिन्न देशों प्रान्तों की बोलियों में प्रयुक्त शब्दों तथा प्रसंगानुकूल ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग भी यत्र-तत्र मिलते हैं। उदाहरणार्थ झेंदुअ (१/१६), कंदुअ (२/१८), सेरिह (२/१८), महिस (२/१८) छुडुछुडु (२/१९), जैसे देशी-शब्द तथा झंझा (३/२०), झलझलइ (३/२०), गुलगुलंत (७८/१७) जैसे अनेक ध्वन्यात्मक शब्द प्रयुक्तत है। काव्यात्मक वर्णन-प्रसंगों में साहित्यक-अपभ्रंश का रुप एक-सदृश तथा सरल वर्णन-प्रसंगों में अपेक्षाकृत सरल अपभ्रंश रुप मिलते हैं। कहीं-कहीं तो वह इतनी सरल है कि उसका आधुनिक हिन्दी में भी यथावत् शब्दानुवाद किया जा सकता है। ___ पुष्पदन्त का युग संघर्ष का युग था। उनके पूर्व अनेक विदेशियों के आक्रमण हो चुके थे। उनके भारत में आगमन से भाषा एवं संस्कृति भी प्रभावित हुई थी। अनेक विदेशी शब्द दुग्ध-शर्करा की भाँति स्थानीय भाषाओं में धुल-मिल गये थे। साहित्यिक रचनाएँ भी उनसे अछूती नहीं रह गई थीं। तिसट्टिमहा. स्वयं उसका एक उदाहरण है। उसमें प्रयुक्त कुछ विदेशी शब्दों के उदाहरण दृष्टव्य है। अंगुत्थल (=अंगूठी, मुद्रिका) ४/९/७, ३१/१३/१३/, ३२/१४/६ आदि। उक्त शब्द मूलतः फारसी शब्द है, जो अंगुष्टरी शब्द से संस्कृत में अंगुष्ठ (अंगूठा) के रूप में प्रचलित हो गया तथा जो प्राकृत-अपभ्रंश में अंगुत्थलिय, अंगुत्थल अर्थात् अंगुली की मुद्रिका के रुप में प्रयुक्त होने लगा। -- 191 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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