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________________ महाराष्ट्राश्रयां भाषा प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम्॥. शौरसेनी च गौडी च लाटी चान्या च तादृशी। याति प्राकृतमित्येवं व्यवहारेषु सन्निधिम्। - काव्यादर्श १.३४,३५ अर्थात् महाराष्ट्र में प्रचलित महाराष्ट्री प्राकृत अन्य प्राकृत भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है, जिसमें सूक्तिरत्नों के सागर सेतुबन्ध आदि काव्य रचे गये हैं। इसकेअतिरिक्त शौरसेनी, गौडी, लाटी तथा इस प्रकार की अन्य प्राकृत भाषाएँ भी व्यवहार में प्रचलित हैं। टीकाकार रत्नश्री ज्ञान ने शौरसेनी च गौडी, च लाटी चान्या च तादृशी इस कथन की टीका में कहा है कि ये प्राकृत भाषाएँ हैं, जिसके प्रयोग साहित्य में गौण रूप में होते हैं, जबकि महाराष्ट्री प्राकृत को संस्कृत भाषा की तरह साहित्यिक प्रयोग के लिये संस्कारित कर लिया गया । इसलिए कर्पूरमंजरी जैसे कतिपय अपवादों को छोड दें, तो शौरसेनी, गौडी, लाटी आदि प्राकृत भाषाओं में स्वतंत्र रूप से विरचित कोई साहित्यिक कृति प्रायः नहीं मिलती। शौरसेनी प्राकृत में जैनसिद्धांत के ग्रंथ अवश्य लिखे गये हैं और जैन आगम ग्रंथों की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। प्राकृत मूलतः व्याकरण के नियमों से बन्धी नहीं थी। अभिनवगुप्त कहते हैं- प्रकृतेसंस्काररूपाया आगतम् प्राकृतम्- असंस्कृत या व्याकरण से अपरिमार्जित रूप प्रकृति है, उससे जन्म लेने वाला भाषारूप प्राकृत है। प्राकृत कथाकार उद्योतनसूरि अपनी कुवलयमालाकहा में कहते हैं कि साहित्यिक स्तर पर कथा के पात्र संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश या पैशाची में बातचीत करते हुए प्रदर्शित किये गये हैं और ऐसे प्रसंगों में उद्योतनसूरि ने संवाद संस्कृत या अपभ्रंश भाषा में ही दिये हैं पाइयभासारइयामगहठ्ठदेशीवण्णयणिबद्धा। सुद्धा सयलकहा च्चिअ तावसजिणसत्थवाहिला। कौतूहलेन कत्थइ परवयणवसेण सक्कयणिबद्धा॥ किंचि अवभंसकाया दावियपेसायभासिका॥ गाथा गायन की परम्परा : गाथा छन्द या गाथा की विधा को प्राकृत कविता ने जो उत्कर्ष प्रदान किया, वह भी भारतीय साहित्य की अनमोल निधि है। वैदिक संहिताओं की रचना के साथ-साथ संस्कृत में गाथा, इतिहास, पुराण आदि के रूप में लौकिक वांगमय की रचना भी होती आ रही थी। वेद मन्त्रों को षियों के वंशजों या शिष्यों के पास ही रहे। दूसरी ओर गाथा, इतिहास-पुराण के रुप में जो वांगमय विकसित हो रहा था, वह जनसामान्य तक पहुंचा। यह वाङ्मय भी वेद के ही समान प्राचीन है। -181 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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